शुक्रवार, 10 जनवरी 2014

ताज महोत्सव के लिए आगे आना होगा आगरे की जनता को


राममनोहर लोहिया के आंदोलन से राजनीति के अखाड़े के नामचीन पहलवान बने मुलायम सिंह यादव ने समाजवाद का झंडा थामकर राजनीतिक  पारी शुरू की, लेकिन लोहिया का समाजवाद मुलायम सिंह तक आते-आते परिवारवाद में बदल गया। सत्ता का स्वाद चखते ही रियाया के दुख भूल गए नेताजी और मुजफ्फरनगर दंगों के पीड़ितों के जख्म और दर्द भूलकर सैफई में परिवार के साथ जश्न मनाने में मशगूल हो गए। कहते हैं कि राजा वही जो रंक के सुख-दुख का ख्याल रखे। बादशाह वही जो जनता के दुख में भागीदार बने। सुल्तान वही जो सल्तनत में न्याय की मिसाल बने, लेकिन हमारेटीपूजब सूबे केसुल्तानबने तो ऐसी किसी परिभाषा में वे फिट नहीं बैठे। उन्होंने जनता का हमदर्द बनने का दिखावा तो खूब किया, लेकिन कभी जनता का दर्द कम कर नहीं पाए। हाल ही कुछ दिनों पूर्व सैफई महोत्सव के दौरान साइकिल की सवारी का प्रचार तो खूब किया, लेकिन जब इस तरह की खबरें आईं कि लाखों की विदेशी साइकिल परटीपूने 22 किमी का सफर तय किया, तो समाजवाद के पहरेदारों ने प्रतिक्रिया देना ही उचित नहीं समझा।
पूरे मीडिया में आज चर्चा का विषय है मुजफ्फरनगर में हुए दंगे को लेकर। नश्तर सी चुभो देने वाली कंपकंपाती सर्दी में खुले आसमान के नीचे वहां राहत शिविरों में दंगा पीड़ित रहने को मजबूर हैं। वहीं सैफई में हुए रणवीर सिंह की स्मृति  महोत्सव में  जिस तरीके से पैसा बर्बाद किया है, उसे लेकर सरकार के सिपहसलारों ने ही उसे घेर लिया है। राजा-महाराजाओं के जमाने से यह चलन रहा है कि जब कि कोई मेला या नुमाइश लगती थी तो उसे वहां के बादशाह या राजा खूब प्रोत्साहन देते थे। इससे वहां के कलाकारों के साथ ही व्यापार को भी खूब बढ़ावा मिलता था। समय बदलता गया और लोकशाही के साथ-साथ राजा-महाराजाओं, जमींदारों और जागीरदारों का दौर खत्म हो गया और उनकी जगह सरकारों ने ले ली।  आज जो सूरजकुंड, दिल्ली, लखनऊ सहित देश-विदेश में जो मेले लगते हैं उनमें कला, कलाकारों और व्यापार के प्रोत्साहन के लिए सरकार पैसा देती है। इसी क्रम में 1992 में आगरा की संस्कृति, लोककला और सभ्यता को बढ़ावा देने के लिए शुरू किया गया ताज महोत्सव एक प्रयास था कि स्थानीय कलाकारों के हुनर और फन को राज्य स्तरीय या राष्ट्रीय स्तर का मंच उपलब्ध कराने का। एक ऐसा मंच कि जहां हुनर के पारखी और जौहरी स्थानीय कलाकारों प्रतिभा को पहचानें, उसका मोल जानें और उनकी ख्याति सूबाई और देश की सरहदों के पार पहुंचे, लेकिन धीरे-धीरे ताज महोत्सव में स्थानीय कलाकारों के कार्यक्रमों की जगह बॉलीवुड के कलाकारों ने ले ली और सांस्कृतिक संध्या के बजाए यहां स्टार नाइट होने लगीं। प्रदेश सरकार की दोहरी नीति का नमूना देखिए कि सूबे की राजधानी लखनऊ में होने वाले महोत्सव के लिए सरकार 50 लाख रुपए तक प्रोत्साहन राशि के रूप में देती है। वहीं मुगलों की राजधानी और सुलहकुल की नगरी के रूप में विख्यात आगरा (जो कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर काफी नामचीन शहर है) में होने वाले ताज महोत्सव के लिए केवल 10-12 लाख रुपए केंद्र विभिन्न विभागों की ओर से जुटाए जाते हैं। इस बार जो सुनाई दे रहा है या जो बातें छन-छनकर  रही हैं, वो वाकई शर्मनाक है कि सरकार इस बार ताज महोत्सव के लिए केवल डेढ़ से दो लाख रुपए ही देना चाहती है। आगरा के लोगों, व्यापारियों और प्रायोजकों ने ताज महोत्सव के लिए यथासंभव कार्य के साथ ही मदद और आर्थिक सहायता दी। क्या ये उचित है। सरकार अगर इस महोत्सव के लिए कुछ नहीं करना चाहती तो इसका नाम बदलकर आगरा महोत्सव कर दिया जाए, ताकि आगरे के लोग, भामाशाह और समाजसेवी अपने स्तर से प्रयास करें, ताकि फिर से ताज महोत्सव लोकप्रियता की बुलंदियों को छू सके।



समाज सेवा या स्व सेवा




पुरानी कहावत है पहला सुख निरोगी काया, दूजा सुख जेब में माया। निरोगी काया के बाद जब जेब में माया आई तो कुछ लोगों ने समाज सेवा करने की ठान ली। परोपकार की भावना के साथ जरूरतमंदों और निशक्तजनों को सहारा देने लगे। परिणाम अच्छे आने लगे और शहर में समाजसेवी के रूप में ठीक-ठाक पहचान और नाम भी होने लगा। गरीबों की मदद के लिए सैकड़ों हाथ आगे आने लगे और जरूरत से ज्यादा चंदा इकट्ठा होने लगा तो समाजसेवा के मायने ही बदल गए और शहर के कई प्रबुद्ध लोग समाज सेवा छोड़कर स्व सेवा में लग गए। ऐसे लोगों को मठाधीश बनाने में मीडिया की भी काफी सक्रिय भूमिका रही। उनके समाजसेवा से जुड़े हर छोटे-बड़े काम में मीडिया आगे-पीछे घूमते हुए कवरेज करने लगा तो ऐसे लोग अखबारों की सुर्खियों में रहने लगे और दूसरे दिन शहर में चर्चा का विषय भी। हींग लगे ना फिटकरी और रंग चोखा ही चोखा। बिना कुछ खर्च किए ही नाम और दाम खूब मिलने लगा तो मानो ऐसे लोगों के दिमाग ही सातवें आसमान पर पहुंच गए और ये खुद को गरीबों का हमदर्द और जरूरतमंदों का मसीहा मानने लगे। गर्मियों में चंद लोगों को पानी पिलाकर अगले दिन के अखबार में अपनी बड़ी सी फोटो छपवाना। सर्दियों में चंद लोगों को 100-200 रुपए के कंबल बांटकर, बुजुर्गों को 50-60 रुपए का खाना खिलाते हुए मुस्कुराते हुए उनके साथ फोटो खिंचवाकर अखबारों के दफ्तरों में फोटो भिजवा देना। अखबारों के दफ्तरों में पैठ बनाने के साथ ही अखबार जगत के नामचीन लोगों से दोस्ती गांठने लगे और हर छोटे-बड़े काम में मीडिया के दोस्तों को बतौर अतिथि बुलाने लगे। इससे ऐसे लोगों के दो हित सधने लगे। एक उस कार्यक्रम का कवरेज दूसरे दिन बेहतर दिखाई देने लगा और शहर में ऐसे लोगों की ख्याति दिन-दूनी रात चौगुनी फैलने लगी। नतीजा ये लोग अपना मुख्य काम छोड़कर ट्रस्ट आदि खोलकर सारा समय समाजसेवा (‘स्वसेवा) में बिताने लगे। अब हाल ये है कि इनकी हर छोटी-बड़ी एक्टिविटी मीडिया में सुर्खी बटोर ही लेती है। हाल ही एक जगह पढ़ने को मिला कि इनाम की इच्छा से दूर शहर में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो कि इमारत की मजबूत नींव की मानिंद चुपचाप गरीबों निशक्तजनों के उत्थान में लगे हैं। शहर के उक्त मठाधीशों को ऐसे सच्चे समाजसेवियों से समाजसेवा का पाठ सीखने की जरूरत है और साथ ही ये वक्त उनके आत्ममंथन के लिए भी है कि क्या वे सही मायने में समाज के गरीब निशक्त तबके की सेवा कर रहे हैं या स्व सेवा। अगर वे समाजसेवा छोड़ स्वसेवा में लगे हैं तो उन्हें फिर से नई शुरुआत करने का वक्त है।