शनिवार, 12 दिसंबर 2015

स्मार्ट सिटी की कल्पना







हाल ही हुए लोकसभा चुनावों में बीजेपी को प्रचंड बहुमत मिला था. बेहतर शासन और भ्रष्टाचार मुक्त भारत  निर्माण के इरादे के साथ गुजरात के तत्कालीन CM  नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी. तब बहुत आस जगी थी कि  वे देश में  कुछ नया करेंगे. उन्होंने elecations से पहले देशभर में  आयोजित रैलियों में जो जोशीले भाषण दिए थे तब ये लगता था कि  वे देश को भ्रष्टाचार रूपी दानव से मुक्ति दिलाएंगे. 

शायद युवाओं के एक बड़े तबके ने मोदी को विकास के नाम पर ही वोट दिया था. यह वो तबका है जो कि  भ्रष्टाचार और सरकारी तंत्र में  व्याप्त लालफीताशाही से बेहद नाराज था. उसे डिग्री पाने, बेहतर नौकरी, और आरामदायक जिंदगी जीने के लिए काफी कष्टों से गुजरना पड़ता था.



केंद्र सरकार के करीब डेढ़ साल के शासन के बाद ये बड़े ही दुःख के साथ कहना पड़  रहा है कि  उनके इस ईमानदारी वाले रवैये से देश के उन युवाओं को कोई फर्क नहीं पड़ा, बल्कि हाल ही में जो उनकी स्मार्ट सिटी से रिलेटेड जो पालिसी आई है, उसे लेकर अब युवा भी खुलकर विरोध में आ गए हैं कि PM ने सरकारी कर्मचारियों को बेईमानी का एक और मौका दे दिया. 

आज डॉक्टर, इंजीनियर सहित अन्य बुद्धिजीवी वर्ग का ये मानना है कि  सरकारी कर्मचारी यदि पुरे 8 घंटे ईमानदारी से काम करे तो सरकार से जो रकम जिस पेटे के मद में आती है, उसे पूरी ईमानदारी से खर्च करे तो दो साल में हमारा शहर ही नहीं, समूचा देश ही स्मार्ट सिटी बन जायेगा. 

लगता है कि आरक्षण के दंश का खामियाजा युवाओं को ही भुगतना पड़ रहा है. इसके चलते नाकाबिल आदमी भी चपरासी से लेकर मंत्री की कुर्सी पर बैठा है. 

लगता है कि  स्मार्ट सिटी ही फ्यूचर में उस दंश को झेलेगी, जो शहर सही और सच्चे रूप में हमारे स्मार्ट सिटी के रूप में  पहचाने जाने चाहिए ताकि दुनिआ में भारत की छवि एक विकासशील देश की बननी चाहिए, ऐसा नहीं हो पायेगा. इसलिए लेखक का ये मानना है कि  स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट को पीएमओ से ऑपरेट होना चाहिए. इसके लिए जो शहर चुने जाने थे उन प्रोजेक्ट की मॉनीटिरिंग के लिए एक स्ट्रांग मॉनिटरिंग कमिटी बननी चाहिए थी. इसमें यदि कोई पैसे या पद का दुरुपयोग करता पाया जाये तो उसे म्रतियुदंड का प्रावधान किया जाना चाहिए. ऐसा होने पर ही हम सुनहरे भविष्य की कामना कर सकते हैं. 


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सर्दी और कम्बल



जैसे जैसे सर्दी बढ़ती है, वैसे वैसे ही शहर के मंदिरों, रैन बसेरों, सड़को और फुटपाथ पर रहने वालों को कम्बल बांटे जाने वाली न्यूज़ सुर्खियां बटोरने लगती हैं. ठीक उसी तरह जैसे कि  गर्मियों में लगने वाले प्याऊ और वाटर कूलर की खबरें टॉक ऑफ़ द टाउन होती है. 

सर्दियों के परवान चढ़ते ही समाजसेवी संस्थाएं और  विभिन्न सरकारी एजेन्सी की ओर से गरीबों और बेसहारा लोगों के लिए कम्बल वितरण किया जाता है. अगले दिन बढ़ा-चढ़ाकर इस काम को पेश किया जाता है और अखबारों के जरिये खुद ही वाही वाही लूटने का दौर शुरू हो जाता है. साथ ही ये भी देखने को मिलता   है कि "सर्द रात में कांपते हाथों को कम्बल से राहत". इस सबके बीच ये भी देखा गया है कि  दूसरे दिन ही वो कम्बल बाजार में बिकने आ गए. ठीक समाजवादी सरकार की ओर से बांटे गए लैपटॉप की तरह. 



हर साल ताजनगरी में हजारों कम्बल का वितरण होता है. एक कम्बल की औसत उम्र ४-५ साल होती है. अब यहाँ सवाल ये है कि हर साल जो कम्बल बांटे जाते है वो जाते कहाँ हैं और हर साल कम्बल पाने वाले पात्र व्यक्ति पैदा कहाँ से हो जाते हैं. 

राज्य सरकार और समाजसेवियों को ये सोचना चाहिए कि  ये कैसा कम्बलवाद है, इसका ठोस समाधान क्या है. जिस तरह वोट का दुरुपयोग रोकने के लिए वोटर की अंगुली पर स्याही लगायी जाती है ठीक उसी तरह कम्बल पाने वाले आदमी का भी रिकॉर्ड होना चाहिए. 

लेखक का एक और मानना है कि  समाजसेवी और सरकारी एजेंसीज की ओर से बांटे जाने वाले कम्बल का गलत इस्तेमाल रोकने के लिए एक ठोस नीति बने और लोग दिल से दान करें ना की अपने को चर्चित बनाने के लिए कयोंकि ताजनगरी वो शहर है कि जहाँ की दानवीरता के अंग्रेंज भी कायल थे और यहाँ के लालाओं ने उन्हें व्यापार जमाने के लिए अपने खजानों के मुंह खोल दिए थे. 

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