मंगलवार, 30 जुलाई 2013

पहचान खो रहा सम्मान


त्वमेव माता  च पिता त्वमेव, त्वमेवबंधू च सखा त्वमेव…  इस श्लोक के आज मायने बदल गए हैं।
 दरअसल, आदिकाल से जो देखा और पढ़ा है उसमें  दुनिया भर में  भारत वर्ष ही एक  ऐसा अकेला देश है कि  जहां पर बड़ों  को सम्मान देने की एक  स्वस्थ परंपरा रही है कि  जिसमें  भाईचारा, परिवारवाद  की सीख  देकर एक  अच्छा नागरिक बनाया जाता है। आज जिस तरीके से दुनिया में  भौतिकता बढ़ी है और भारत में  भौतिकवाद और पश्चिम की संस्कृति सभ्यता का अन्धानुकरण बढ़ा है। ऐसे समय में  इतिहास में  लिखे सम्मान शब्द का अर्थ ही धूमिल  होता जा रहा है। एक समय था कि  जब अपने से एक  साल बड़े भाई और बहन के पैर छूकर उन्हें सम्मान दिया जाता था और अपने समाज के बड़े लोगों का भी लोग आदर करते थे, लेकिन आज लालच  आर्थिक हो या सामाजिक पद का हो या प्रमोशन का, आज  हर चीज  को पाने के लिए सम्मान की परिभाषा बदल गयी है। आज सम्मान 'सम्मान'  मज़बूरी और दिखावा बनकर रह गया है, जिसमें कि  आज हम  घुटने तक ही पैर छूने  का दिखावा करतेहैं। आज अपने लालच की पूर्ति के लिए सामने वाले के पैर छूने  से भी आगे जूता पहनाने की या पैर दबाने की घटनाएं  सामने आती हैं और अख़बारों की सुर्ख़ियों बटोरती हैं। ऐसे में  हम जो सम्मान का आज ढ़कोसला करते हैं वो एक  विचारनीय प्रश्न है  ही, लेकिन उसके भी आगे अपने लालच की पूर्ति के लिए  हद दर्जे की चापलूसी सामने वाले के बच्चे खिलाने  तक ही रह जाए तो भी समझ आता है, लेकिन  आज भी  निजी स्वार्थ की पूर्ति के लिए अनैतिक कार्य करने से भी गुरेज नहीं करते हैं।
देश की आज़ादी से पहले जो गुरूओं  का सम्मान था, वो अब केवल गुरु पूर्णिमा तक ही सिमटकर रह गया है. आज इस भौतिकवाद के दौर में  गुरु, भाई, माँ-बाप, चाचा चाची, दादा दादी ये सभी तो जैसे हिमालय पर जाकर बैठ गए हैं. आज हालत ये है कि  अगर किसी को कोई नेता या अफसर से काम है तो उसके लिए वो ही सब कुछ बनकर रह गया है। अगर  चापलूसी हमारे समाज में  लगातार बढती रहेगी तो आप ये तय मानिए  कि  हमारी नयी पीढ़ी आरक्षण का दंश तो झेलेगी ही चापलूसी को भी उसे झेलना होगा। इससे उसकी कार्य क्षमता और ईमानदारी  किसी कला फिल्म की  फ्लॉप शो साबित होगी। इसलिए आज हम बौद्धिक  लोगों को सोचना होगा कि  हम  इसे कैसे रोकें।

सोमवार, 29 जुलाई 2013

गरीबी का ये कैसा मजाक

सरकार  ने जो गरीबी उन्मूलन की योजनाएं बनाई  हैं वो सांख्यिकी के एक  फार्मूले की तरह से बनाईं हैं।ऐसा इसलिए क्योंकि उस फार्मूले के प्रोफ़ेसर के अनुसार एक  नदी दो फुट आगे, दो फुट पीछे और बीच  में  ४ फुट गहरी होनी चाहिए थी, लेकिन वो ७ फुट गहरी थी, जिससे कि  उसे पार करने की फ़िराक में  एक  पूरा परिवार डूब गया था। गरीबी के मायने हर परिवार के लिए अलग अलग हैं।विवेकानंद जी के फार्मूले 'जीरो'  की तरह से हर सामने वाला गरीब है। आगरा के एक  बिज़नस टाइकून के आगे मैं गरीब हूँ, मेरे सामने कोई और गरीब है। भगवन और सरकार  के आगे सब गरीब हैं, ऐसा इसलिए क्योंकि सरकारी नुमाइंदे (विधायक-सांसद) तो संसद या विधानसभा की कैंटीन में  १५ रु में भरपेट थाली पाकर अपना पेट भर लेते हैं, वहीँ एक लाख वेतन और तमाम सुविधाएं अलग से। कमोबेश हमारे नीति नियंताओं (योजना आयोग) की भी यही स्थिति है और सबसे मजेदार बात ये है कि  शासन में  बैठे लोग चुनाव के समय तो गरीबों की बस्ती में  जाते हैं तो चुनावी चश्मे के पार उन्हें वहां गरीबी नहीं दिखती क्योंकि उनकी जेब में शराब की बोतल और नोटों की गड्डियां  रहती हैं। अगर देश के किसी भी शहर में  निष्पक्ष सर्वे कराया जाये और हम अपने शहर की झुग्गी झोपडी में  झांके तो हर तरफ वहां गरीब नजर आएंगे।जो लोग दो जून पौष्टिक भोजन नहीं खा पा रहे हैं वो गरीब ही नहीं अत्यधिक गरीब हैं और जो लोग दो जून खाना खा रहे हैं झुग्गी में रह रहे हैं वो भी बमुश्किल नमक से ही रोटी खा रहे हैं उनकी थाली से सब्जी गायब है।
आजकल एक सरकारी चपरासी जो कि  10000 रु वेतन पाता है वो भी अपने परिवार का बमुश्किल खर्च चला पाता है, यदि उसकी ऊपर की कमाई न हो तो सरकारी दफ्तरों में  गरीबी को लेकर रोजाना हंगामा  हो ।  रोटी तो खाने को लोगों को रोज ही मिल जाती है, लेकिन आज भी लाखों परिवार ऐसे हैं जो कि  दो दो दिन भूखे रहते हैं। अगर हम आगरा की ही बात करें तो यहाँ जो 25000 bpl  कार्ड धारक हैं, उनसे कई गुना अधिक लोग फुटपाथ, प्लेटफार्म बस स्टैंड, पुल के नीचे  और सीवर  वाली पाइप लाइन में रहते हुए मिल जायेंगे। तो क्या सरकार में बैठे लोगों को वो लोग गरीब नहीं दिखते हैं। ये वो लोग हैं जो कि  bpl card  का मतलब भी नहीं जानते हैं। आज जिस तेजी से महंगाई बढ़ रही है उसकी दुगनी तेजी से गरीब बढ़ रहे हैं। देश आजाद होने के बाद से जो योजनायें गरीबों के लिए बनी हैं, उनसे गरीबी तो नहीं हटी है, बल्कि गरीब ही हट गए हैं।आज महंगाई बढ़ने के साथ 3000 वेतन पाने वाले का वेतन तो 3500 रु हो गया है मगर खर्च 5000 रु हो गया। देश भर में ऐसे हजारों लोग हैं जो हर महीने कई खर्चों को काटकर अपना घर खर्च चला रहे हैं।ऐसी परिस्थितियों में गरीब 27 फीसदी हैं या 74 फीसदी ये कहीं मायने नहीं रखता है। मायने ये बात रखती है कि  सरकार  में  बैठे लोग जिनके कन्धों पर सरकारी योजनायें बनाने की जिम्मेदारी है ऐसे अर्थशास्त्री, समाजशास्त्रियों में  भारतीय मानवता व परंपरा कब जागेगी कि  हे ईश्वर  पहले पडोसी को रोटी दे फिर मुझे।
ये मुद्दा आज दिल दहलाने वाला और मर्म को छूने वाला है, लेकिन कहीं और मुद्दों की तरह ये भी दो दिन सुर्ख़ियों में रहने के बाद गायब न हो जाए। गरीबों के साथ जो सरकार  ने मजाक किया है इसमें कहीं हम भी भागीदार न बन जाएं। आज इस मुद्दे को लेकर हम सबकी जिम्मेदारी है कि  अगर हम प्रबुद्ध और संपन्न है तो हमें भी इस मुद्दे की चर्चा करनी चाहिए  और सरकार  को मजबूर करना चाहिए कि  वो इस मुद्दे पर फिर से विचार करे। इस तरह का मजाक सारे राजनीतिक दल कर रहे हैं। अगर खुद का भत्ता बढ़ने की बात हो तो सभी दल के नेता एक हो जाते हैं और विधानसभा या संसद में इसे पास कराने के लिए कुछ मेज़ें  तोड़ ही डालते हैं।

गांधीजी के देश में ईमानदारी का सिला निलंबन


देश के दामाद कहे जाने वाले रोबर्ट वाड्रा की हरियाणा में  जमीनों का खुलासा करने वाले अफसर खेमका को एक  साल में  कई ट्रान्सफर झेलने पड़े थे। वहीं मध्य प्रदेश में खनन माफियाओं के खिलाफ कार्यवाही करने वाले जाबांज अफसर को इसकी कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी थी. कुछ इसी तरह का मामला आजकल में  नॉएडा में  देखने को मिला।
दरअसल, परिवार में  जब बच्चा पैदा होता है तो माँ बाप बच्चे  की परवरिश यथासंभव बेहतर ही करते हैं और स्वस्थ परंपरा और स्वस्थ समाज के रूप में अपने बच्चे को स्थापित होते देखना चाहते हैं। चाहे वो खुद सदाचार का पालन न कर पाए हों लेकिन चाहते हैं कि बच्चा सदाचार के पथ पर आगे बढे। समाज का यूथ सदाचार की भावना, समाज को बदलने की कोशिश, अपने परिवार और देश का नाम करने की ललक लेकर हर स्तर  से पढ़ाई  करके जब वो अपने प्रोफेशन, कार्यक्षेत्र और कारोबार में  उतरता है तो उसमें वही जज्बा होता है, जो सीमा पर तैनात फौजी का होता है, लेकिन धीरे-धीरे वो जज्ब़ा परिस्थितियों, सामाजिक सरंचना, प्रशासनिक व्यस्था, अपने कार्यक्षेत्र के लोग और राजनीतिक स्वार्थ, शासन उन सबमें  इतना बड़ा रोड़ा अटका देते हैं कि  आदमी अपने पथ से भटकने को मजबूर ही नहीं आँख मूंद कर उस दलदल में फंस जाता है। और फिर एक  सर्किल चलता है कि हम अपनी आने वाली पीढ़ी को हम स्वस्थ समाज की शिक्षा देते हैं, पर फिर वो उन्ही तरीकों से त्रस्त  हो जाता है। इसमें सबसे प्रमुख बात यह है कि  जो एक  बौद्धिक  स्तर के लोग हैं या उस कार्यक्षेत्र के लोग हैं वो सभी अगर कार्य कुशल और ईमानदार  लोगों का मनोबल बढ़ा  दें  और समूह में  एकत्र होकर उस व्यस्था के खिलाफ खड़े हो जाएँ तो कोई ऐसा कारन नहीं है कि राजनीति  से प्रभावित निर्णय या स्वार्थ में  लिप्त निर्णय अधिकारी की ईमानदारी  या कर्तव्य  परायणता से रोक सके। हमारे समाज के सामने आज का प्रज्वलन्त उदहारण  २८ साल की युवा आईएएस  बेटी दुर्गा शक्ति नागपाल में है जो कि  अवैध कामों  पर रोक ही नहीं, बल्कि सरकार  के राजस्व में  भी बढ़ोतरी कर रही थीं। ऐसे अधिकारी को अपने स्वार्थ और आर्थिक स्वार्थ के कारण  बलि का बकरा बना दिया जाता है (जैसा कि नॉएडा की अधिकारी दुर्गा शक्ति को बना दिया)। आज जिस मानसिक पीड़ा से वो और उनकर परिवार गुजर रहा है वैसे ही दौर से कई अफसर और उनका परिवार गुजर चुका  है। इस मामले के बाद कई अफसर ये चर्चा कर रहे होंगें कि  अब उन्हें आगे किस हद तक ईमानदारी अपने काम में अपनानी होगी या नौकरी छोड़कर निजी सेक्टर में नौकरी तलाशनी होगी। ऐसा करके ये अफसर कम से कम वोट की राजनीती से तो बच  जाएंगे। इतिहास के पन्ने पलटकर देखें तो ऐसे कई उदहारण  देखने को मिलेंगे जिसमें कि  अफसरों को निलंबन के अलावा मानसिक वेदना भी झेली है।  कुछ अफसरों ने तो मौत को ही गले लगा लिया या त्रस्त  होकर नौकरी छोड़ने के बाद आम जिंदगी गुजर बसर करना उचित समझा।
हमारा मानना  है कि  यदि हम भारत को विकसित देश और उत्तर प्रदेश को उत्तम प्रदेश बनना देखना चाहते  है तो हम समस्त लोगों की ये जिम्मेदारी बनती है कि  अपना स्वार्थ छोड़कर ऐसे  ईमानदार और कर्तव्य  परायणता अधिकारियों और कर्मचारियों को अपने परिवार का ही आदमी मानकर उनका हर प्लेटफार्म पर खुलकर सपोर्ट और आमजन विरोधी सरकारी नीतियों और आदेशों का जोरदार विरोध करें। 

शनिवार, 27 जुलाई 2013

विज्ञापनों में फूहड़ता


आज जिस तरह से देश की आबादी बढ़  रही है, रोज नए-नए उत्पाद मार्केट में आ रहे हैं। आज उपभोक्तावाद मार्केट पर हावी है। इन सबके चलते किसी भी उत्पाद को उपभोक्ताओं तक पहुचाने के लिए विज्ञापन एक सशक्त माध्यम है। विज्ञापन के माध्यम से उपभोक्ता को न केवल उसके काम की चीज़ मिलती है, बल्कि लाखों लोगों को रोजगार भी मिलता है। विज्ञापन का काम अब एक इंडस्ट्री में बदल चुका है। अगर  फ्लैशबैक में जाएं तो आदिकाल से ही विज्ञापन चलन में  है और राजा महाराजाओं के समय में हाथी-घोड़ों से प्रचार किया जाता था। उस समय में विज्ञापन या आदमी को उस चीज़ की उपयोगिता धर्म, सेहत, सामाजिक व्यवहार और क्वालिटी से बताई जाती थी ।  जैसे कि vicks को एक बच्चे की छाती पर मलकर माँ की ममता को एनकैश किया गया। इस प्रकार उत्पादनों में जड़ी-बूटियों के इस्तेमाल को या उसकी खूबियों को बताकर कि ये सेहत के लिए फायदेमंद है। जैसे-जैसे भौतिकवाद को बढ़ावा मिला वैसे वैसे ही विज्ञापन ने भी  दशा और दिशा तय कर ली और फूहड़पन की हद पार करते हुए नारी की देह का विज्ञापन में भरपूर प्रदर्शन कर पुरुष प्रधान समाज को लालायित किया गया। वहीं नारी ने भी सौन्दर्य प्रसाधन के विज्ञापनों को खूब पसंद किया। आज विज्ञापन भी नंगेपने की तस्वीरों से उतारकर बेडरूम scene तक पहुँच गया है।  आज ये विज्ञापन जिनका कि कहाँ पर उपभोग है इन्हें किस जगह दिखाना है इसका कोई मानदंड नहीं है। शराब कंडोम जैसी चीजों का विज्ञापन स्कूल कॉलेज  के साथ  पब्लिक ट्रांसपोर्ट में  भी दिख जाता है। जब मनुष्य ऐसे विज्ञापन देखता है तो ऐसे उत्पादों की बिक्री तो बढ़ जाती है,  लेकिन समाज में एक बुराई भी पनप जाती है जैसे कि हर युवक-युवती को विज्ञापन की मानिंद दिखाने की होड़ लग जाती है। विज्ञापनों में नंगापन तो एक पहलु है ही, साथ ही फूहड़ता और गालियों की भी भरमार है जो हमारे समाज को कहां लेकर जाएगी ये कह पाना बड़ा ही मुश्किल है। उपभोक्तावाद में वस्तु का विज्ञापन जरुरी है, लेकिन हम अपने उत्पाद को बेचने के लिए इतने भी उतावले ना हों कि जिसमें सारी मर्यादाएं ही तार तार हो जाएं। बात खाली स्वास्थ्यवर्धक, सेक्सवर्धक दवाइयों की या खुद को सुन्दर और आकर्षित दिखाने की नहीं है, ऐसे तमाम उत्पादों को भी अगर हम साफगोई से प्रदर्शित करेंगे तो ऐसा नहीं है कि उपभोक्ता इन विज्ञापनों को हाथोंहाथ न ले। अफ़सोस वहां होता है कि जब  साबुन जैसे विज्ञापन में एक महिला अपने देवर के लिए कहती है कि ये तो हनीमून यहीं मनाएंगे तो बाल मन में ये सवाल उठाना स्वाभाविक है कि हनीमून क्या होता है। ऐसे में समाज को सोचना चाहिए कि वो अपने बच्चों को कैसे संस्कार  चाहते हैं और समाज को ऐसे विज्ञापनों का बहिष्कार करके सरकार पर दबाव बनाकर इन विज्ञापनों की फूहड़ता पर सख्ती से रोक लगानी चाहिए।

बुधवार, 24 जुलाई 2013

विरोध का नायाब तरीका


आदमी  रोजमर्रा की जिंदगी में नई-नई दिक्कतों को झेलते हुए इतना त्रस्त हो गया है कि वो अपनी बात कहने का कोई न कोई उपाय सोचता रहता है।  उन उपायों से सुधार होता है कि नहीं ये एक अलग  प्रश्न है। शासन और प्रशासन  तरीके के विरोध ( रास्ता जाम, बैनर लेकर निकलना, हाय- हाय के नारे लगाना, हड़ताल)  को झेलने का आदी हो गया है कि दुसरे दिन अखबार में खबर छपकर अंधकार की कालिख में कहीं खो जाती है। विरोध के इन तरीकों से जन मानस को इतनी परेशानी होती है कि कई बार मरीजों को जान से हाथ  धोना पड़ता है तो कुछ लोगों को मुश्किलों का सामना  करना पड़ता है और आम एव मजदूर वर्ग को रोजी रोटी का संकट हो जाता है। ऐसे समय में एक वर्ग जो ड्राइंग रूम में बैठकर चाय की चुस्कियों के साथ अपने बौद्धिक स्तर का बखान करता है। सामर्थवान होते हुए भी अपने आपको या तो अलीट ग्रुप में मानता है और इसी कारण किसी भी प्लेटफार्म पर वो इन नीतियों (सरकारी नीतियों, घोटालों और खर्चों) का विरोध नहीं करता।
ऐसे समय में मुंबई के अदिति restaurent ने विरोध का जो तरीका अपनाया है लेखक के अनुसार वो वाकई बेमिसाल है। क्या गलत है और क्या सही ये अलग बात है, लेकिन विरोध के इस तरीके से न तो आम जनता परेशान होगी और ना ही किसी की ज़िन्दगी जाएगी। ये तरीका एक परिवार को अपनी बात को समझाने का सार्थक प्रयास है वो भी बिना देश की संपत्ति को नुक्सान पहुँचाए, बिना कोई खर्च बढाए विरोध का ये तरीका जापानी कामगारों के तरीके की ही तरह है कि जो विरोध के लिए काली पट्टी एक घंटा ज्यादा काम करते हैं या producation बढ़ाने के लिए एक घंटा ज्यादा काम करते हैं।
ऐसे तरीकों को बुद्धिजीवी वर्ग अपनाए तो हर क्षेत्र में देश की तरक्की संभव है और ये तरीके घोटाले, भ्रष्टाचार पर कुछ हद तक कमी करने में सार्थक साबित हो सकते हैं। विरोध के इस तरीके पर किसी को कोई आपत्ति है तो वो अपनी बात रखे या अदालत की शरण ले। हिंसा, तोड़फोड़ से विरोध करना गलत तरीका है। इससे केवल सरकारी और निजी संपत्ति को नुक्सान पहुँचता है।  ऐसे में ये प्रश्न उठता है कि क्या हम प्रजातंत्र में जी रहे हैं या dectatorship में।

सोमवार, 22 जुलाई 2013

क्या हम हिंदू राष्ट्र हैं


अमरनाथ में हुए बवाल की खबर पढ़ी। इसे पढने  के बाद लगा कि क्या हिन्दू राष्ट्र में हिंदुओं  को हर ओर से अपने फर्ज के लिए झुकना होगा और शांति से बिना  आवाज किये और ये मानते हुए कि हमारा तो  कोई नहीं है। ऐसे समय में विचार कौंधता है कि प्राकृतिक आपदा (हाल ही कि केदारनाथ की घटना)  से जो विनाश हुआ उसमें केंद्र और राज्य सरकार की जो संवेदन हीनता देखने को मिली।  हजारों लाखों लोग बेघर और बर्बाद हो गए। कई लोगों ने मदद के लिए तडपते हुए  जान दे दी। एक रोटी के लिए, एक दवाई की गोली के लिए आस से निहारते हुए आँखें भी पथरा गयी, लेकिन केंद्र और राज्य सरकारों ने ये  साबित कर दिया कि अगर इसी हिन्दू धर्मस्थल की जगह कोई और धर्मस्थल होता तो वोट की राजनीती को लेकर उत्तराखंड या केंद्र सरकार ही नहीं दूसरे राजनीतिक दल भी भगदड़ मचा देते। ज़मीन आसमान एक कर उनका सच्चा हितेषी  होने का दावा करते।
इसी प्रकार से कश्मीर की घटना को देखें तो एक इमाम की पिटाई के बाद कितना बवाल हुआ। हाल ही प्रदेश में हुई दो  घटनाएं कुंडा में डीएसपी की शहादत  के बाद और मथुरा के सिपाही सतीश की शहादत में प्रदेश सरकार का कैसा रवैया रहा ये किसी से छुपा नहीं है। दोनों ही मामलों में सरकार की दो नीतियाँ देखने को मिली। ऐसे में ये सवाल उठता है कि जो गुजरात सरकार ने हिन्दुओं को बचाने के लिए किया, जिसकी कि भर्त्सना समय समय पर दूसरे राजनीतिक दल आज भी कर रहे हैं तो क्या इस हिन्दू राष्ट्र को गुजरात जैसा सुशासन नहीं  चाहिए या उसकी तरफदारी नहीं करनी चाहिए। अगर हम अपने आपको सच्चा भारतीय कहते हैं तो हम लोगों को  परंपरा, धार्मिक स्थल, रीति रिवाज और धर्म को बचाने और देश की उन्नति और अपने आपको दुनिया में एक स्थान पाने के लिए आगामी चुनावों में सजग मतदाता की जिम्मेदारी निभानी होगी। हर वोटर की ये जिम्मेदारी बनती है कि कौन नेता या भारतीय राष्ट्र विरोधी है या कौन नहीं है और कौन  बातों से हटकर देश  के विकास की बात करता है उस के बारे में तय करे कि किसे वोट देना है। इस लेख का आशय किसी की भावनाओं को चोट पहुचाना नहीं है। सिर्फ एक ही मकसद है कि देश में ऐसी घटनाएं न हों।

रविवार, 21 जुलाई 2013

अच्छे-बुरे काम का इनाम ट्रान्सफर


 बुधवार सुबह के अख़बारों में  आगरे के एक बड़े अधिकारी  के तबादले की खबर पढ़ी। खबर पढने के बाद दिमाग में विचार कौंधा कि क्या मेरे शहर को हर बार ऐसा ही सिला मिलेगा। दरअसल, ऐसा पहली बार नहीं है कि जब यहां से किसी अच्छे अधिकारी का तबादला साल भर से भी कम अन्तराल में हो गया हो। पिछले करीब दस बीस साल में  गौर करें तो एक  लम्बी फ़ेहरिस्त है पुलिस और प्रशासन के ऐसे अधिकारिओं की ( महिला और पुरुष अधिकारी ) की कि जिनके कार्यकाल में आगरा के लोगों को उम्मीद बंधी थी। ये तमाम अधिकारी इन उम्मीदों पर खरे उतरे भी, लेकिन इनके अच्छे काम का इनाम इन्हें ट्रान्सफर के रूप में  मिला। क्या अच्छे  और बुरे काम दोनों का ही इनाम एक ही है। दरअसल, सत्ताधारी दल के नेताओं की असंतुष्टि और अहं का टकराव अच्छे कामों पर रोक लगाती है।
अभी कुछ साल पहले की ही तो बात है जब पुलिस डिपार्टमेंट में  बतौर  डीआईजी आगरा आये एक अफसर ने जन सरोकार से जुड़े कई कामों के साथ ही अपने डिपार्टमेंट में  सुधार के भी काम किये थे। उनके बाद पिछले साल दिसम्बर में  पुलिस डिपार्टमेंट में  एक  बड़े अधिकारी आये थे, उन्होंने भी ताजनगरी को अपराध मुक्त बनाने के लिए दिन रात एक  कर दिया था। अपने चंद महीनो के कार्यकाल में  ही उन्होंने कई बड़ी घटनाओं का खुलासा किया। साथ ही उन मामलों को भी खोला  जो सालों से लंबित थे। अपनी चुस्त कार्य शैली के चलते उन्होंने कई मामलों में  सत्त्ताधारी दल के नेताओं की भी नहीं सुनी। आगरे में  जिस तरह से उन्होंने अपराध पर रोक लगाई उसमें लोकल नेताओं की असंतुष्टि या उनके दबाव के चलते शायद उन्होंने भी यहाँ से ट्रान्सफर की इच्छा जताई थी।
वो मीडिया जिसने उक्त अधिकारी महोदय के सात  माह के कार्यकाल को प्रमुखता से कवरेज किया, आगरे की वो जनता जिसने हर बड़ी घटना के खुलासे के बाद अधिकारी महोदय का हर १५ दिन में  सम्मान किया।
आगरा की जनता की क्या जिम्मेदारी नहीं है कि  अच्छे काम करने वाले नेताओं और अफसरों को शहर में रोक कर अपने शहर की छवि को अपराध मुक्त बनाने में  खुद की भी भागीदारी निभाए और प्रगतिशील शहर की छवि बनाये।
देखा गया  है कि यहां  के लोगों का चेहरा चमकाने, सम्बन्ध बनाने और अपने काम निकालने की भावना के अलावा  इस शहर से कोई लगाव नहीं है। ऐसे लोग मौका परस्त हैं, जिन्हें आज चौथा स्तम्भ भी प्रमुखता से कवरेज करता है, इस चलते असलियत में  जो काम करने वाले अधिकारी हैं, उनका अच्छा काम छिपकर रह जाता है।
लेखक का ये मानना है कि  जिस तरह आगरे की जनता की चुनाव में  वोट देकर साफ राजनीती की जमीन तैयार करने की जिम्मेदारी है, उसी प्रकार अगर कोई अधिकारी अच्छा काम करता है तो उसे रोकने के प्रति आगरे की जनता को जिम्मेदार होना चाहिए अन्यथा जन मानस में ये धारणा बैठ जाएगी कि  हमारा तो कुछ नहीं हो सकता। कमोबेश ऐसी ही धारणा  अधिकारियों  और राजनीतिक दलों में  बैठ जाती है और इसके दूरगामी परिणाम देखने को मिलते हैं।
लेखक का एक  और मत है कि  कोई व्यक्ति जब अपने कार्यक्षेत्र में  उतरता है तो कुछ कर गुजरने की इच्छा शक्ति लेकर उतरता है। राजनीतिक माहौल और सामाजिक चाप्लुसता उसे अपनी इच्छा शक्ति से समझौता करने को मजबूर कर देती है। जिसका परिणाम अधिकारी और आम जनता को भुगतना पड़ता है और ट्रान्सफर का लैटर बतौर इनाम उसकी झोली में गिरता है।
दरअसल अधिकारियों की जब शहर में नियुक्ति होती है तो वो शहर की तरक्की का खाका खींचते हैं और उस पर गंभीरता से काम भी करते हैं, लेकिन टाइम से पहले उनका ट्रान्सफर होने से नुक्सान यहाँ की जनता को ही झेलना होता है, क्योंकि उनकी जगह आने वाले नए अधिकारी नया प्लान बनाते हैं और जिन योजनाओं से लोगों को लाभ मिलना होता है वो आगे खिसक जाती हैं.

शनिवार, 20 जुलाई 2013

मनुष्य पर हावी पैसा कमाने की ललक
मुझे याद है प्राइमरी शिक्षा की पढ़ाई  के दौरान हमें भोजनावकाश में स्कूल की तरफ से दो खट्टे-मीठे बिस्कुट दिए जाते थे। बेकरी में बने इन बिस्कुटों को पानी में भिगो कर खाने का अलग ही आनंद आता था। पढ़ाई के साथ ही हम भोजनावकाश में बिस्कुट खाने को लालायित रहते थे। तब गरीब-अमीर का कोई भेदभाव नहीं था। बच्चो में दूसरे का बिस्कुट छीनने के बाद खाने की होड़ लगी रहती थी। अगर किसी दोस्त का टिफ़िन नहीं आता था तो उसके साथ बिस्कुट शेयर करके भाईचारा निभाने का अलग ही सुकून मिलता था। पढ़ाई के दौरान जैसे-जैसे आगे बढ़ते गए, खेल के बाद एक अमरुद, केला और सेव रोज मिलता था। कई बार तो एक-एक कुल्लड दूध भी मिला करता था। इसे पीने का मजा ही अलग होता था। बाद में जब एनसीसी में आये तो वंहा पर चार  पीस ब्रेड और मक्खन खाने को मिलता था। एनसीसी की वर्दी पहनने का रॊब भी अलग ही था। ये सब बचपन की बातें है। उस समय ज्ञान भी कम था। वो योजनायें college की थी या वो सरकारी थीं तब इसका भान नहीं था। तब दो बिस्कुट और एक केला जो आनंद देते थे और healthy भी थे। वो शायद सरकारी योजनाएं या पैसा कमाने की ललक में आज कहीं खो सा गया है। ये बात सोचकर दिल काँप उठता है। सभ्य मनुष्य के जीवन की तीन मूलभूत  आवश्यकता भोजन, स्वास्थ्य और शिक्षा का आज जिस तरीके से चीर हरण किया जा रहा है आसमान में द्रोपदी भी सोचती होगी कि आदि काल में मेरा चीर-हरण हुआ, अगर ये आज हुआ होता तो ये नरभक्षी देश के भविष्य के साथ पैसे के लालच में सरकारी योजनाओं द्वारा खुलेआम मौत के सौदागर बन जाते और हत्या जैसा जघन्य अपराध करके शाम को मयखाने में बैठकर पैग छलकाकर अपने कार्य और पैसों  का बखान करते। वो ये भूल जाते हैं कि उनके तरीके के इस जघन्य कृत्य से जब उनके किसी परिवार या मित्र को गुजरना पड़ता है तो वही लोग चीख पढ़ते हैं और गीता, कुरआन तथा बाइबिल की बातें करते हैं। जो लोग भोजन, स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में इस तरह का जघन्य अपराध करते हैं। आज समाज को सोचना चाहिए कि  क्या ऐसे लोगो को बीच  चौराहे पर खड़ा करके उनके परिवार के साथ भी ऐसा ही कृत्य किया जाये। जो नौनिहाल जात-पात और भेदभाव से दूर हैं और जो कभी अपने परिवार की लाठी बनेंगे या देश की उन्नति में भागीदारी करेंगे। उन्हें समय से पहले  ख़राब भोजन देना भी जघन्य अपराध की ही श्रेणी चिन्हित किया जाये और हर घटनाक्रम की तरह निचले स्तर के लोगों की बलि देकर या ट्रान्सफर  करके इतिश्री नहीं कर लेनी चाहिए। जो समाजसेवक हैं उन्हें इस तरह की घटनाओं को जन सूचना के अधिकार या कोर्ट के माध्यम से उजागर करना चाहिए और सरकार में बैठे हुए इस तरह के कृत्य करने वाले मंत्रियों को सजा दिला  के एक  स्वस्थ समाज की रचना करनी चाहिए। हाल ही में बिहार में हुई मिड डे meal  की घटना मैं बे मौत मारे गए बच्चों के लिए बड़ा दुःख है। हम सभी को मिल कर उनकी आत्मा की शांति की कामना करनी चाहिए। साथ ही ईश्वर  से गुजारिश है कि भविष्य में  ऐसी घटनाएँ न हों।