रविवार, 21 जुलाई 2013

अच्छे-बुरे काम का इनाम ट्रान्सफर


 बुधवार सुबह के अख़बारों में  आगरे के एक बड़े अधिकारी  के तबादले की खबर पढ़ी। खबर पढने के बाद दिमाग में विचार कौंधा कि क्या मेरे शहर को हर बार ऐसा ही सिला मिलेगा। दरअसल, ऐसा पहली बार नहीं है कि जब यहां से किसी अच्छे अधिकारी का तबादला साल भर से भी कम अन्तराल में हो गया हो। पिछले करीब दस बीस साल में  गौर करें तो एक  लम्बी फ़ेहरिस्त है पुलिस और प्रशासन के ऐसे अधिकारिओं की ( महिला और पुरुष अधिकारी ) की कि जिनके कार्यकाल में आगरा के लोगों को उम्मीद बंधी थी। ये तमाम अधिकारी इन उम्मीदों पर खरे उतरे भी, लेकिन इनके अच्छे काम का इनाम इन्हें ट्रान्सफर के रूप में  मिला। क्या अच्छे  और बुरे काम दोनों का ही इनाम एक ही है। दरअसल, सत्ताधारी दल के नेताओं की असंतुष्टि और अहं का टकराव अच्छे कामों पर रोक लगाती है।
अभी कुछ साल पहले की ही तो बात है जब पुलिस डिपार्टमेंट में  बतौर  डीआईजी आगरा आये एक अफसर ने जन सरोकार से जुड़े कई कामों के साथ ही अपने डिपार्टमेंट में  सुधार के भी काम किये थे। उनके बाद पिछले साल दिसम्बर में  पुलिस डिपार्टमेंट में  एक  बड़े अधिकारी आये थे, उन्होंने भी ताजनगरी को अपराध मुक्त बनाने के लिए दिन रात एक  कर दिया था। अपने चंद महीनो के कार्यकाल में  ही उन्होंने कई बड़ी घटनाओं का खुलासा किया। साथ ही उन मामलों को भी खोला  जो सालों से लंबित थे। अपनी चुस्त कार्य शैली के चलते उन्होंने कई मामलों में  सत्त्ताधारी दल के नेताओं की भी नहीं सुनी। आगरे में  जिस तरह से उन्होंने अपराध पर रोक लगाई उसमें लोकल नेताओं की असंतुष्टि या उनके दबाव के चलते शायद उन्होंने भी यहाँ से ट्रान्सफर की इच्छा जताई थी।
वो मीडिया जिसने उक्त अधिकारी महोदय के सात  माह के कार्यकाल को प्रमुखता से कवरेज किया, आगरे की वो जनता जिसने हर बड़ी घटना के खुलासे के बाद अधिकारी महोदय का हर १५ दिन में  सम्मान किया।
आगरा की जनता की क्या जिम्मेदारी नहीं है कि  अच्छे काम करने वाले नेताओं और अफसरों को शहर में रोक कर अपने शहर की छवि को अपराध मुक्त बनाने में  खुद की भी भागीदारी निभाए और प्रगतिशील शहर की छवि बनाये।
देखा गया  है कि यहां  के लोगों का चेहरा चमकाने, सम्बन्ध बनाने और अपने काम निकालने की भावना के अलावा  इस शहर से कोई लगाव नहीं है। ऐसे लोग मौका परस्त हैं, जिन्हें आज चौथा स्तम्भ भी प्रमुखता से कवरेज करता है, इस चलते असलियत में  जो काम करने वाले अधिकारी हैं, उनका अच्छा काम छिपकर रह जाता है।
लेखक का ये मानना है कि  जिस तरह आगरे की जनता की चुनाव में  वोट देकर साफ राजनीती की जमीन तैयार करने की जिम्मेदारी है, उसी प्रकार अगर कोई अधिकारी अच्छा काम करता है तो उसे रोकने के प्रति आगरे की जनता को जिम्मेदार होना चाहिए अन्यथा जन मानस में ये धारणा बैठ जाएगी कि  हमारा तो कुछ नहीं हो सकता। कमोबेश ऐसी ही धारणा  अधिकारियों  और राजनीतिक दलों में  बैठ जाती है और इसके दूरगामी परिणाम देखने को मिलते हैं।
लेखक का एक  और मत है कि  कोई व्यक्ति जब अपने कार्यक्षेत्र में  उतरता है तो कुछ कर गुजरने की इच्छा शक्ति लेकर उतरता है। राजनीतिक माहौल और सामाजिक चाप्लुसता उसे अपनी इच्छा शक्ति से समझौता करने को मजबूर कर देती है। जिसका परिणाम अधिकारी और आम जनता को भुगतना पड़ता है और ट्रान्सफर का लैटर बतौर इनाम उसकी झोली में गिरता है।
दरअसल अधिकारियों की जब शहर में नियुक्ति होती है तो वो शहर की तरक्की का खाका खींचते हैं और उस पर गंभीरता से काम भी करते हैं, लेकिन टाइम से पहले उनका ट्रान्सफर होने से नुक्सान यहाँ की जनता को ही झेलना होता है, क्योंकि उनकी जगह आने वाले नए अधिकारी नया प्लान बनाते हैं और जिन योजनाओं से लोगों को लाभ मिलना होता है वो आगे खिसक जाती हैं.

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