मंगलवार, 30 जुलाई 2013

पहचान खो रहा सम्मान


त्वमेव माता  च पिता त्वमेव, त्वमेवबंधू च सखा त्वमेव…  इस श्लोक के आज मायने बदल गए हैं।
 दरअसल, आदिकाल से जो देखा और पढ़ा है उसमें  दुनिया भर में  भारत वर्ष ही एक  ऐसा अकेला देश है कि  जहां पर बड़ों  को सम्मान देने की एक  स्वस्थ परंपरा रही है कि  जिसमें  भाईचारा, परिवारवाद  की सीख  देकर एक  अच्छा नागरिक बनाया जाता है। आज जिस तरीके से दुनिया में  भौतिकता बढ़ी है और भारत में  भौतिकवाद और पश्चिम की संस्कृति सभ्यता का अन्धानुकरण बढ़ा है। ऐसे समय में  इतिहास में  लिखे सम्मान शब्द का अर्थ ही धूमिल  होता जा रहा है। एक समय था कि  जब अपने से एक  साल बड़े भाई और बहन के पैर छूकर उन्हें सम्मान दिया जाता था और अपने समाज के बड़े लोगों का भी लोग आदर करते थे, लेकिन आज लालच  आर्थिक हो या सामाजिक पद का हो या प्रमोशन का, आज  हर चीज  को पाने के लिए सम्मान की परिभाषा बदल गयी है। आज सम्मान 'सम्मान'  मज़बूरी और दिखावा बनकर रह गया है, जिसमें कि  आज हम  घुटने तक ही पैर छूने  का दिखावा करतेहैं। आज अपने लालच की पूर्ति के लिए सामने वाले के पैर छूने  से भी आगे जूता पहनाने की या पैर दबाने की घटनाएं  सामने आती हैं और अख़बारों की सुर्ख़ियों बटोरती हैं। ऐसे में  हम जो सम्मान का आज ढ़कोसला करते हैं वो एक  विचारनीय प्रश्न है  ही, लेकिन उसके भी आगे अपने लालच की पूर्ति के लिए  हद दर्जे की चापलूसी सामने वाले के बच्चे खिलाने  तक ही रह जाए तो भी समझ आता है, लेकिन  आज भी  निजी स्वार्थ की पूर्ति के लिए अनैतिक कार्य करने से भी गुरेज नहीं करते हैं।
देश की आज़ादी से पहले जो गुरूओं  का सम्मान था, वो अब केवल गुरु पूर्णिमा तक ही सिमटकर रह गया है. आज इस भौतिकवाद के दौर में  गुरु, भाई, माँ-बाप, चाचा चाची, दादा दादी ये सभी तो जैसे हिमालय पर जाकर बैठ गए हैं. आज हालत ये है कि  अगर किसी को कोई नेता या अफसर से काम है तो उसके लिए वो ही सब कुछ बनकर रह गया है। अगर  चापलूसी हमारे समाज में  लगातार बढती रहेगी तो आप ये तय मानिए  कि  हमारी नयी पीढ़ी आरक्षण का दंश तो झेलेगी ही चापलूसी को भी उसे झेलना होगा। इससे उसकी कार्य क्षमता और ईमानदारी  किसी कला फिल्म की  फ्लॉप शो साबित होगी। इसलिए आज हम बौद्धिक  लोगों को सोचना होगा कि  हम  इसे कैसे रोकें।

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