आज जिस तरह से देश की आबादी बढ़ रही है, रोज नए-नए उत्पाद मार्केट में आ रहे हैं। आज उपभोक्तावाद मार्केट पर हावी है। इन सबके चलते किसी भी उत्पाद को उपभोक्ताओं तक पहुचाने के लिए विज्ञापन एक सशक्त माध्यम है। विज्ञापन के माध्यम से उपभोक्ता को न केवल उसके काम की चीज़ मिलती है, बल्कि लाखों लोगों को रोजगार भी मिलता है। विज्ञापन का काम अब एक इंडस्ट्री में बदल चुका है। अगर फ्लैशबैक में जाएं तो आदिकाल से ही विज्ञापन चलन में है और राजा महाराजाओं के समय में हाथी-घोड़ों से प्रचार किया जाता था। उस समय में विज्ञापन या आदमी को उस चीज़ की उपयोगिता धर्म, सेहत, सामाजिक व्यवहार और क्वालिटी से बताई जाती थी । जैसे कि vicks को एक बच्चे की छाती पर मलकर माँ की ममता को एनकैश किया गया। इस प्रकार उत्पादनों में जड़ी-बूटियों के इस्तेमाल को या उसकी खूबियों को बताकर कि ये सेहत के लिए फायदेमंद है। जैसे-जैसे भौतिकवाद को बढ़ावा मिला वैसे वैसे ही विज्ञापन ने भी दशा और दिशा तय कर ली और फूहड़पन की हद पार करते हुए नारी की देह का विज्ञापन में भरपूर प्रदर्शन कर पुरुष प्रधान समाज को लालायित किया गया। वहीं नारी ने भी सौन्दर्य प्रसाधन के विज्ञापनों को खूब पसंद किया। आज विज्ञापन भी नंगेपने की तस्वीरों से उतारकर बेडरूम scene तक पहुँच गया है। आज ये विज्ञापन जिनका कि कहाँ पर उपभोग है इन्हें किस जगह दिखाना है इसका कोई मानदंड नहीं है। शराब कंडोम जैसी चीजों का विज्ञापन स्कूल कॉलेज के साथ पब्लिक ट्रांसपोर्ट में भी दिख जाता है। जब मनुष्य ऐसे विज्ञापन देखता है तो ऐसे उत्पादों की बिक्री तो बढ़ जाती है, लेकिन समाज में एक बुराई भी पनप जाती है जैसे कि हर युवक-युवती को विज्ञापन की मानिंद दिखाने की होड़ लग जाती है। विज्ञापनों में नंगापन तो एक पहलु है ही, साथ ही फूहड़ता और गालियों की भी भरमार है जो हमारे समाज को कहां लेकर जाएगी ये कह पाना बड़ा ही मुश्किल है। उपभोक्तावाद में वस्तु का विज्ञापन जरुरी है, लेकिन हम अपने उत्पाद को बेचने के लिए इतने भी उतावले ना हों कि जिसमें सारी मर्यादाएं ही तार तार हो जाएं। बात खाली स्वास्थ्यवर्धक, सेक्सवर्धक दवाइयों की या खुद को सुन्दर और आकर्षित दिखाने की नहीं है, ऐसे तमाम उत्पादों को भी अगर हम साफगोई से प्रदर्शित करेंगे तो ऐसा नहीं है कि उपभोक्ता इन विज्ञापनों को हाथोंहाथ न ले। अफ़सोस वहां होता है कि जब साबुन जैसे विज्ञापन में एक महिला अपने देवर के लिए कहती है कि ये तो हनीमून यहीं मनाएंगे तो बाल मन में ये सवाल उठाना स्वाभाविक है कि हनीमून क्या होता है। ऐसे में समाज को सोचना चाहिए कि वो अपने बच्चों को कैसे संस्कार चाहते हैं और समाज को ऐसे विज्ञापनों का बहिष्कार करके सरकार पर दबाव बनाकर इन विज्ञापनों की फूहड़ता पर सख्ती से रोक लगानी चाहिए।
जैसे जैसे भौतिक प्रगति हो रही है, मानव अपनी मानवीय संवेदना खोता जा रहा है। उसे केवल अधिकार याद हैं कर्तव्य नहीं। आज के समय की सबसे बड़ी चुनौती इंसानियत को जिंदा रखने की है। इसके लिए लफ्फाजी नहीं अपितु समर्पण से कम करने की जरुरत है।
शनिवार, 27 जुलाई 2013
विज्ञापनों में फूहड़ता
आज जिस तरह से देश की आबादी बढ़ रही है, रोज नए-नए उत्पाद मार्केट में आ रहे हैं। आज उपभोक्तावाद मार्केट पर हावी है। इन सबके चलते किसी भी उत्पाद को उपभोक्ताओं तक पहुचाने के लिए विज्ञापन एक सशक्त माध्यम है। विज्ञापन के माध्यम से उपभोक्ता को न केवल उसके काम की चीज़ मिलती है, बल्कि लाखों लोगों को रोजगार भी मिलता है। विज्ञापन का काम अब एक इंडस्ट्री में बदल चुका है। अगर फ्लैशबैक में जाएं तो आदिकाल से ही विज्ञापन चलन में है और राजा महाराजाओं के समय में हाथी-घोड़ों से प्रचार किया जाता था। उस समय में विज्ञापन या आदमी को उस चीज़ की उपयोगिता धर्म, सेहत, सामाजिक व्यवहार और क्वालिटी से बताई जाती थी । जैसे कि vicks को एक बच्चे की छाती पर मलकर माँ की ममता को एनकैश किया गया। इस प्रकार उत्पादनों में जड़ी-बूटियों के इस्तेमाल को या उसकी खूबियों को बताकर कि ये सेहत के लिए फायदेमंद है। जैसे-जैसे भौतिकवाद को बढ़ावा मिला वैसे वैसे ही विज्ञापन ने भी दशा और दिशा तय कर ली और फूहड़पन की हद पार करते हुए नारी की देह का विज्ञापन में भरपूर प्रदर्शन कर पुरुष प्रधान समाज को लालायित किया गया। वहीं नारी ने भी सौन्दर्य प्रसाधन के विज्ञापनों को खूब पसंद किया। आज विज्ञापन भी नंगेपने की तस्वीरों से उतारकर बेडरूम scene तक पहुँच गया है। आज ये विज्ञापन जिनका कि कहाँ पर उपभोग है इन्हें किस जगह दिखाना है इसका कोई मानदंड नहीं है। शराब कंडोम जैसी चीजों का विज्ञापन स्कूल कॉलेज के साथ पब्लिक ट्रांसपोर्ट में भी दिख जाता है। जब मनुष्य ऐसे विज्ञापन देखता है तो ऐसे उत्पादों की बिक्री तो बढ़ जाती है, लेकिन समाज में एक बुराई भी पनप जाती है जैसे कि हर युवक-युवती को विज्ञापन की मानिंद दिखाने की होड़ लग जाती है। विज्ञापनों में नंगापन तो एक पहलु है ही, साथ ही फूहड़ता और गालियों की भी भरमार है जो हमारे समाज को कहां लेकर जाएगी ये कह पाना बड़ा ही मुश्किल है। उपभोक्तावाद में वस्तु का विज्ञापन जरुरी है, लेकिन हम अपने उत्पाद को बेचने के लिए इतने भी उतावले ना हों कि जिसमें सारी मर्यादाएं ही तार तार हो जाएं। बात खाली स्वास्थ्यवर्धक, सेक्सवर्धक दवाइयों की या खुद को सुन्दर और आकर्षित दिखाने की नहीं है, ऐसे तमाम उत्पादों को भी अगर हम साफगोई से प्रदर्शित करेंगे तो ऐसा नहीं है कि उपभोक्ता इन विज्ञापनों को हाथोंहाथ न ले। अफ़सोस वहां होता है कि जब साबुन जैसे विज्ञापन में एक महिला अपने देवर के लिए कहती है कि ये तो हनीमून यहीं मनाएंगे तो बाल मन में ये सवाल उठाना स्वाभाविक है कि हनीमून क्या होता है। ऐसे में समाज को सोचना चाहिए कि वो अपने बच्चों को कैसे संस्कार चाहते हैं और समाज को ऐसे विज्ञापनों का बहिष्कार करके सरकार पर दबाव बनाकर इन विज्ञापनों की फूहड़ता पर सख्ती से रोक लगानी चाहिए।
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