शनिवार, 28 नवंबर 2015

पहचान खो रहा हमारा शहर



दुनिया में ताजनगरी के नाम से मशहूर मेरा शहर आगरा अब धीरे धीरे अपनी पहचान खोता जा रहा है 

ऐसा इसलिए bcoz यहाँ हाल ही हुई पुलिसिया  कार्रवाही में up पुलिस का अमानवीय चेहरा उजागर हुआ है
मानवधिकार हनन के मामलों में देश में अव्वल रहने वाली उप्र पुलिस ने अपनी हालिया हरकत से देशभर में फिर से हमें शर्मसार किया है 

धनराज सराफ हत्याकांड में जो पुलिस का पक्ष सामने आया है उससे ये साफ़ है कि  पुलिसिया  कार्रवाही का शिकार हमेशा छोटे कारोबारी ही होते हैं

चाहे देश में पेट्रोल का बढ़ना हो, हत्या, लूटपाट, निर्भया हत्याकांड जैसी घटनाएँ, गैंगरेप, लाठीचार्ज, बैंक लूट या अन्य कोई आपराधिक घटना। किसी भी राज्य में सत्ताधारी दल के खिलाफ विरोधी दल का प्रदर्शन हो या नगर निगम और लोकल प्रशासन के खिलाफ स्थानीय लोगों का विरोध। इन सब घटनाओं का खामियाजा या कहें कि  नुक्सान लोकल और पुराने  कारोबारियों को उठाना होता है 

ये केवल ताजनगरी की ही बात नहीं है, बल्कि देस-विदेश का कोई भी छोटा शहर हो या बड़ा महानगर इस समस्या से कहीं के लोग भी अछूते नहीं हैं. किसी घटना के विरोध में होने वाले बंद को सफल बनाने के लिए तमाम पार्टियों के नेता, छुटभैये से लेकर गली के गुंडे भी डंडे और झंडे के दम पर छोटी दुकानों को ही बंद करवाते हैं 

इतिहास ऐसी घटनाओं का गवाह है और हर साल ऐसी कई घटनाओं से हमें और हमारे देशवासियो को दो-चार होना पड़ता है 

छोटा-मोटा काम करने वाले दिहाड़ी मजदुर और छोटे कारोबारी तथा फुटकर काम करने वालों की रोजी-रोटी पर ऐसी घटनाओं का बड़ा असर पड़ता है. इससे हमारी जीडीपी पर भी नेगेटिव असर पड़ता है 

दरअसल, हिन्दुस्तान में लोकतंत्र का दुरुपयोग निजी मतलब साधने के लिए होता है. जिससे ऐसी घटनाएँ होती हैं। वहीँ कल-कारखाने, फैक्ट्रीज और बड़े कारोबारी इन घटनाओं से अछूते रहते हैं. क्या ये बंद और ऐसी घटनाएँ  इनके लिए लागु नहीं होती हैं दूर-दर्ज के इलाके भी बंदी के असर से दूर ही रहते हैं। 
लोकल और पुराने कारोबारियों और पुराने शहर के लोगों को क्यों इसका नुक्सान उठाना पड़ता है और राजमर्रा की चीजों के कई गुना दाम चुकाने होते हैं 

आज हम पश्चिम के दशों की नीतियों और वहां के सिस्टम को पूरी तरह स्वीकार कर चुके हैं तो विरोध करने के लिए अहिंसात्मक रस्ते पर क्यों नहीं चल सकते कयोकि ये रास्ता तो दुनिया को हमारे पूजनीय मोहन दास करमचंद गांधी ने ही दिखाया था, जिन्हे हम और दुनिया 'बापू' के नाम से जानती है

किसी भी आपराधिक घटना के विरोध (हत्या, लूटपाट, निर्भया हत्याकांड, गैंगरेप, लाठीचार्ज, बैंक लूट)  में शांतिमार्च, रैली, दो घंटे की बंधी या काली पट्टी बांधकर पर्द्शन ऐसे ही तरीकों में शामिल हैं इसके अलावा अखबार को ब्लैकआउट करने भी इन्ही तरीकों में शामिल है 



पुलिस की हालिया लाठीचार्ज की घटना और पुलिस की और से पत्रकारों की पिटाई की घटना ने यहाँ आने वाले सैलानियों और देश-विदेश के सामने आगरा का सिर फिर से शर्म से झुका दिया है सारे शहर की संवेदनाएं  पीड़ित पक्ष के साथ है. इसमें व्यापारी और मीडिया वाले सभी पीड़ित पक्ष के साथ हैं 

ऐसे समय में आवश्यकता है हमें एकजुटता दिखाने की. ऐसे समय में सब कुछ बंद करने की आवश्यकता है यंहा सोचने की बात है कि वर्तमान में केंद्र सरकार वाली पार्टी ही एजेंडा क्यों बनाती है और क्यों इसे लागू करती है इसमें जरुरत कांग्रेस को शामिल करने की भी है. ताकि निजी मतलब को दरकिनार कर देश में बेहतर और साफ़ प्रशासन की तस्वीर दी जा सके. 

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बुधवार, 25 नवंबर 2015

भेड़चाल में कहीं गुम न हो जाये बचपन


टीचर्स डे, बाल  दिवस, स्पोर्ट्स रैली या शहर में होने वाला अन्य कोई महोत्सव। अक्सर इन आयोजनों के दौरान दर्शक दीर्घा या मंच के आसपास बच्चों की भीड़ दिख जाती है. हाल ही के कुछ आयोजनों में हुई ऐसी घटनाओं ने लेखक का ध्यान अपनी ओर खींचा।

आये दिन अखबारों  में छपने वाली ऐसी खबरों को पढ़कर लेखक के दिमाग  में ये सवाल आता है कि शहर  में अमुक जगह पर हुए फलां प्रोग्राम में किसी बड़ी सेलिब्रिटी या राजनेता को बुलाया है. आये दिन शहर में मनाई जाने वाली महापुरुषों की जयंती या अन्य ऐसे ही प्रोग्राम में बच्चों को बतौर शोपीस इस्तेमाल किया जा अहा है, जो कि मानवीय दृष्टिकोण से लगता है कि उनका शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न किया जा रहा है. इस कारण उनकी पढ़ाई का समय भी जाया हो रहा है. कहीं न कहीं भविष्य अंधकारमय हो रहा है. हालाँकि ऐसे आयोजनो  में उन्हें ले जाये जाने के कारणों का तो उन्हें भी पता नहीं होता कि उन्हें किस तरह इस्तेमाल किया जा रहा है. न ही अधिकतर बच्चों को ऐसे आयोजनों का अर्थ पता होता है. 

कोई मौसम हो या दिन उन्हें आयोजन स्थल पर खुले आसमां  के नीचे बैठा दिया जाता है. उनकी सार-संभाल या आवश्यकतओं को पूरा करने के लिए साथ  में कोई केयर-टेकर भी नहीं होता है. वहां उनके लिए समुचित जल-पान की भी कोई व्यवस्था नहीं होती है. 

सूबे के वजीरेआला अखिलेश यादव के हालिया ताजनगरी के दौरे के दौरान भी कमोबेश ऐसा ही देखने को मिला. दिल्ली की एक कंपनी की ओर से आयोजित फुटबॉल कार्यक्रम के उद्धघाटन के समय भीड़ जुटाने के लिए आयोजकों  ने कई स्कूलों के बच्चोँ को बुला लिया. 

दरअसल, यदि गौर से देखा जाये तो ऐसे आयोजन बच्चों को प्रताड़ित करने का जरिया बनते जा रहे हैं. पिछले एक साल के आयोजनों  पर नजर डालें तो शहर में कोई भी सेलिब्रिटी या राजनेता आये तो उनके प्रोग्राम  में बच्चों को बुलाना अब फैशन सा बनता जा रहा है 

आम लोगों का ध्यान बाल मजदूरी की और तो जाता हैं, लेकिन इस और किसी का भी ध्यान नहीं है. क्या ये बाल मजदूरी का छिपा हुआ रूप नहीं है. 

दरअसल, इसे निजी स्कूल वालोँ  की मज़बूरी कहें, आयोजकों के साथ बेहतर सम्बंध की चाह, प्रशासन की दादागीरी मीडिया या पब्लिक प्लेस  में अपनी इमेज चमकाने की चाह , इसे जो भी नाम दें।  liasiang के इस खेल  में हमारे शहर के बच्चे पीस रहे हैं. 


सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण बात कि इस तरह के आयोजनों में मिशनरी स्कूलों के बच्चे विरले ही दिखाई देंगे. इसके पीछे main कारण इन स्कूल के मैनेजमेंट का सरकार के दबाव  में नहीं आना भी है. सोचिये अगर हमारे बच्चे और उनका बचपन ऐसे आयोजनों की भेंट चढ़ेगा तो वो कैसे एक बेहतर और सभ्य नागरिक बन पाएंगे. 


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