बुधवार, 25 नवंबर 2015

भेड़चाल में कहीं गुम न हो जाये बचपन


टीचर्स डे, बाल  दिवस, स्पोर्ट्स रैली या शहर में होने वाला अन्य कोई महोत्सव। अक्सर इन आयोजनों के दौरान दर्शक दीर्घा या मंच के आसपास बच्चों की भीड़ दिख जाती है. हाल ही के कुछ आयोजनों में हुई ऐसी घटनाओं ने लेखक का ध्यान अपनी ओर खींचा।

आये दिन अखबारों  में छपने वाली ऐसी खबरों को पढ़कर लेखक के दिमाग  में ये सवाल आता है कि शहर  में अमुक जगह पर हुए फलां प्रोग्राम में किसी बड़ी सेलिब्रिटी या राजनेता को बुलाया है. आये दिन शहर में मनाई जाने वाली महापुरुषों की जयंती या अन्य ऐसे ही प्रोग्राम में बच्चों को बतौर शोपीस इस्तेमाल किया जा अहा है, जो कि मानवीय दृष्टिकोण से लगता है कि उनका शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न किया जा रहा है. इस कारण उनकी पढ़ाई का समय भी जाया हो रहा है. कहीं न कहीं भविष्य अंधकारमय हो रहा है. हालाँकि ऐसे आयोजनो  में उन्हें ले जाये जाने के कारणों का तो उन्हें भी पता नहीं होता कि उन्हें किस तरह इस्तेमाल किया जा रहा है. न ही अधिकतर बच्चों को ऐसे आयोजनों का अर्थ पता होता है. 

कोई मौसम हो या दिन उन्हें आयोजन स्थल पर खुले आसमां  के नीचे बैठा दिया जाता है. उनकी सार-संभाल या आवश्यकतओं को पूरा करने के लिए साथ  में कोई केयर-टेकर भी नहीं होता है. वहां उनके लिए समुचित जल-पान की भी कोई व्यवस्था नहीं होती है. 

सूबे के वजीरेआला अखिलेश यादव के हालिया ताजनगरी के दौरे के दौरान भी कमोबेश ऐसा ही देखने को मिला. दिल्ली की एक कंपनी की ओर से आयोजित फुटबॉल कार्यक्रम के उद्धघाटन के समय भीड़ जुटाने के लिए आयोजकों  ने कई स्कूलों के बच्चोँ को बुला लिया. 

दरअसल, यदि गौर से देखा जाये तो ऐसे आयोजन बच्चों को प्रताड़ित करने का जरिया बनते जा रहे हैं. पिछले एक साल के आयोजनों  पर नजर डालें तो शहर में कोई भी सेलिब्रिटी या राजनेता आये तो उनके प्रोग्राम  में बच्चों को बुलाना अब फैशन सा बनता जा रहा है 

आम लोगों का ध्यान बाल मजदूरी की और तो जाता हैं, लेकिन इस और किसी का भी ध्यान नहीं है. क्या ये बाल मजदूरी का छिपा हुआ रूप नहीं है. 

दरअसल, इसे निजी स्कूल वालोँ  की मज़बूरी कहें, आयोजकों के साथ बेहतर सम्बंध की चाह, प्रशासन की दादागीरी मीडिया या पब्लिक प्लेस  में अपनी इमेज चमकाने की चाह , इसे जो भी नाम दें।  liasiang के इस खेल  में हमारे शहर के बच्चे पीस रहे हैं. 


सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण बात कि इस तरह के आयोजनों में मिशनरी स्कूलों के बच्चे विरले ही दिखाई देंगे. इसके पीछे main कारण इन स्कूल के मैनेजमेंट का सरकार के दबाव  में नहीं आना भी है. सोचिये अगर हमारे बच्चे और उनका बचपन ऐसे आयोजनों की भेंट चढ़ेगा तो वो कैसे एक बेहतर और सभ्य नागरिक बन पाएंगे. 


इस ब्लॉग पर आप अपने कमेंट्स दीजिये। आपकी राय को इस शहर और देश के लोगों के साथ साझा किया जाएगा. आपके विचारों का स्वागत है. 



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