सोमवार, 29 जुलाई 2013

गरीबी का ये कैसा मजाक

सरकार  ने जो गरीबी उन्मूलन की योजनाएं बनाई  हैं वो सांख्यिकी के एक  फार्मूले की तरह से बनाईं हैं।ऐसा इसलिए क्योंकि उस फार्मूले के प्रोफ़ेसर के अनुसार एक  नदी दो फुट आगे, दो फुट पीछे और बीच  में  ४ फुट गहरी होनी चाहिए थी, लेकिन वो ७ फुट गहरी थी, जिससे कि  उसे पार करने की फ़िराक में  एक  पूरा परिवार डूब गया था। गरीबी के मायने हर परिवार के लिए अलग अलग हैं।विवेकानंद जी के फार्मूले 'जीरो'  की तरह से हर सामने वाला गरीब है। आगरा के एक  बिज़नस टाइकून के आगे मैं गरीब हूँ, मेरे सामने कोई और गरीब है। भगवन और सरकार  के आगे सब गरीब हैं, ऐसा इसलिए क्योंकि सरकारी नुमाइंदे (विधायक-सांसद) तो संसद या विधानसभा की कैंटीन में  १५ रु में भरपेट थाली पाकर अपना पेट भर लेते हैं, वहीँ एक लाख वेतन और तमाम सुविधाएं अलग से। कमोबेश हमारे नीति नियंताओं (योजना आयोग) की भी यही स्थिति है और सबसे मजेदार बात ये है कि  शासन में  बैठे लोग चुनाव के समय तो गरीबों की बस्ती में  जाते हैं तो चुनावी चश्मे के पार उन्हें वहां गरीबी नहीं दिखती क्योंकि उनकी जेब में शराब की बोतल और नोटों की गड्डियां  रहती हैं। अगर देश के किसी भी शहर में  निष्पक्ष सर्वे कराया जाये और हम अपने शहर की झुग्गी झोपडी में  झांके तो हर तरफ वहां गरीब नजर आएंगे।जो लोग दो जून पौष्टिक भोजन नहीं खा पा रहे हैं वो गरीब ही नहीं अत्यधिक गरीब हैं और जो लोग दो जून खाना खा रहे हैं झुग्गी में रह रहे हैं वो भी बमुश्किल नमक से ही रोटी खा रहे हैं उनकी थाली से सब्जी गायब है।
आजकल एक सरकारी चपरासी जो कि  10000 रु वेतन पाता है वो भी अपने परिवार का बमुश्किल खर्च चला पाता है, यदि उसकी ऊपर की कमाई न हो तो सरकारी दफ्तरों में  गरीबी को लेकर रोजाना हंगामा  हो ।  रोटी तो खाने को लोगों को रोज ही मिल जाती है, लेकिन आज भी लाखों परिवार ऐसे हैं जो कि  दो दो दिन भूखे रहते हैं। अगर हम आगरा की ही बात करें तो यहाँ जो 25000 bpl  कार्ड धारक हैं, उनसे कई गुना अधिक लोग फुटपाथ, प्लेटफार्म बस स्टैंड, पुल के नीचे  और सीवर  वाली पाइप लाइन में रहते हुए मिल जायेंगे। तो क्या सरकार में बैठे लोगों को वो लोग गरीब नहीं दिखते हैं। ये वो लोग हैं जो कि  bpl card  का मतलब भी नहीं जानते हैं। आज जिस तेजी से महंगाई बढ़ रही है उसकी दुगनी तेजी से गरीब बढ़ रहे हैं। देश आजाद होने के बाद से जो योजनायें गरीबों के लिए बनी हैं, उनसे गरीबी तो नहीं हटी है, बल्कि गरीब ही हट गए हैं।आज महंगाई बढ़ने के साथ 3000 वेतन पाने वाले का वेतन तो 3500 रु हो गया है मगर खर्च 5000 रु हो गया। देश भर में ऐसे हजारों लोग हैं जो हर महीने कई खर्चों को काटकर अपना घर खर्च चला रहे हैं।ऐसी परिस्थितियों में गरीब 27 फीसदी हैं या 74 फीसदी ये कहीं मायने नहीं रखता है। मायने ये बात रखती है कि  सरकार  में  बैठे लोग जिनके कन्धों पर सरकारी योजनायें बनाने की जिम्मेदारी है ऐसे अर्थशास्त्री, समाजशास्त्रियों में  भारतीय मानवता व परंपरा कब जागेगी कि  हे ईश्वर  पहले पडोसी को रोटी दे फिर मुझे।
ये मुद्दा आज दिल दहलाने वाला और मर्म को छूने वाला है, लेकिन कहीं और मुद्दों की तरह ये भी दो दिन सुर्ख़ियों में रहने के बाद गायब न हो जाए। गरीबों के साथ जो सरकार  ने मजाक किया है इसमें कहीं हम भी भागीदार न बन जाएं। आज इस मुद्दे को लेकर हम सबकी जिम्मेदारी है कि  अगर हम प्रबुद्ध और संपन्न है तो हमें भी इस मुद्दे की चर्चा करनी चाहिए  और सरकार  को मजबूर करना चाहिए कि  वो इस मुद्दे पर फिर से विचार करे। इस तरह का मजाक सारे राजनीतिक दल कर रहे हैं। अगर खुद का भत्ता बढ़ने की बात हो तो सभी दल के नेता एक हो जाते हैं और विधानसभा या संसद में इसे पास कराने के लिए कुछ मेज़ें  तोड़ ही डालते हैं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें