सोमवार, 29 जुलाई 2013

गांधीजी के देश में ईमानदारी का सिला निलंबन


देश के दामाद कहे जाने वाले रोबर्ट वाड्रा की हरियाणा में  जमीनों का खुलासा करने वाले अफसर खेमका को एक  साल में  कई ट्रान्सफर झेलने पड़े थे। वहीं मध्य प्रदेश में खनन माफियाओं के खिलाफ कार्यवाही करने वाले जाबांज अफसर को इसकी कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी थी. कुछ इसी तरह का मामला आजकल में  नॉएडा में  देखने को मिला।
दरअसल, परिवार में  जब बच्चा पैदा होता है तो माँ बाप बच्चे  की परवरिश यथासंभव बेहतर ही करते हैं और स्वस्थ परंपरा और स्वस्थ समाज के रूप में अपने बच्चे को स्थापित होते देखना चाहते हैं। चाहे वो खुद सदाचार का पालन न कर पाए हों लेकिन चाहते हैं कि बच्चा सदाचार के पथ पर आगे बढे। समाज का यूथ सदाचार की भावना, समाज को बदलने की कोशिश, अपने परिवार और देश का नाम करने की ललक लेकर हर स्तर  से पढ़ाई  करके जब वो अपने प्रोफेशन, कार्यक्षेत्र और कारोबार में  उतरता है तो उसमें वही जज्बा होता है, जो सीमा पर तैनात फौजी का होता है, लेकिन धीरे-धीरे वो जज्ब़ा परिस्थितियों, सामाजिक सरंचना, प्रशासनिक व्यस्था, अपने कार्यक्षेत्र के लोग और राजनीतिक स्वार्थ, शासन उन सबमें  इतना बड़ा रोड़ा अटका देते हैं कि  आदमी अपने पथ से भटकने को मजबूर ही नहीं आँख मूंद कर उस दलदल में फंस जाता है। और फिर एक  सर्किल चलता है कि हम अपनी आने वाली पीढ़ी को हम स्वस्थ समाज की शिक्षा देते हैं, पर फिर वो उन्ही तरीकों से त्रस्त  हो जाता है। इसमें सबसे प्रमुख बात यह है कि  जो एक  बौद्धिक  स्तर के लोग हैं या उस कार्यक्षेत्र के लोग हैं वो सभी अगर कार्य कुशल और ईमानदार  लोगों का मनोबल बढ़ा  दें  और समूह में  एकत्र होकर उस व्यस्था के खिलाफ खड़े हो जाएँ तो कोई ऐसा कारन नहीं है कि राजनीति  से प्रभावित निर्णय या स्वार्थ में  लिप्त निर्णय अधिकारी की ईमानदारी  या कर्तव्य  परायणता से रोक सके। हमारे समाज के सामने आज का प्रज्वलन्त उदहारण  २८ साल की युवा आईएएस  बेटी दुर्गा शक्ति नागपाल में है जो कि  अवैध कामों  पर रोक ही नहीं, बल्कि सरकार  के राजस्व में  भी बढ़ोतरी कर रही थीं। ऐसे अधिकारी को अपने स्वार्थ और आर्थिक स्वार्थ के कारण  बलि का बकरा बना दिया जाता है (जैसा कि नॉएडा की अधिकारी दुर्गा शक्ति को बना दिया)। आज जिस मानसिक पीड़ा से वो और उनकर परिवार गुजर रहा है वैसे ही दौर से कई अफसर और उनका परिवार गुजर चुका  है। इस मामले के बाद कई अफसर ये चर्चा कर रहे होंगें कि  अब उन्हें आगे किस हद तक ईमानदारी अपने काम में अपनानी होगी या नौकरी छोड़कर निजी सेक्टर में नौकरी तलाशनी होगी। ऐसा करके ये अफसर कम से कम वोट की राजनीती से तो बच  जाएंगे। इतिहास के पन्ने पलटकर देखें तो ऐसे कई उदहारण  देखने को मिलेंगे जिसमें कि  अफसरों को निलंबन के अलावा मानसिक वेदना भी झेली है।  कुछ अफसरों ने तो मौत को ही गले लगा लिया या त्रस्त  होकर नौकरी छोड़ने के बाद आम जिंदगी गुजर बसर करना उचित समझा।
हमारा मानना  है कि  यदि हम भारत को विकसित देश और उत्तर प्रदेश को उत्तम प्रदेश बनना देखना चाहते  है तो हम समस्त लोगों की ये जिम्मेदारी बनती है कि  अपना स्वार्थ छोड़कर ऐसे  ईमानदार और कर्तव्य  परायणता अधिकारियों और कर्मचारियों को अपने परिवार का ही आदमी मानकर उनका हर प्लेटफार्म पर खुलकर सपोर्ट और आमजन विरोधी सरकारी नीतियों और आदेशों का जोरदार विरोध करें। 

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