शनिवार, 12 दिसंबर 2015

सर्दी और कम्बल



जैसे जैसे सर्दी बढ़ती है, वैसे वैसे ही शहर के मंदिरों, रैन बसेरों, सड़को और फुटपाथ पर रहने वालों को कम्बल बांटे जाने वाली न्यूज़ सुर्खियां बटोरने लगती हैं. ठीक उसी तरह जैसे कि  गर्मियों में लगने वाले प्याऊ और वाटर कूलर की खबरें टॉक ऑफ़ द टाउन होती है. 

सर्दियों के परवान चढ़ते ही समाजसेवी संस्थाएं और  विभिन्न सरकारी एजेन्सी की ओर से गरीबों और बेसहारा लोगों के लिए कम्बल वितरण किया जाता है. अगले दिन बढ़ा-चढ़ाकर इस काम को पेश किया जाता है और अखबारों के जरिये खुद ही वाही वाही लूटने का दौर शुरू हो जाता है. साथ ही ये भी देखने को मिलता   है कि "सर्द रात में कांपते हाथों को कम्बल से राहत". इस सबके बीच ये भी देखा गया है कि  दूसरे दिन ही वो कम्बल बाजार में बिकने आ गए. ठीक समाजवादी सरकार की ओर से बांटे गए लैपटॉप की तरह. 



हर साल ताजनगरी में हजारों कम्बल का वितरण होता है. एक कम्बल की औसत उम्र ४-५ साल होती है. अब यहाँ सवाल ये है कि हर साल जो कम्बल बांटे जाते है वो जाते कहाँ हैं और हर साल कम्बल पाने वाले पात्र व्यक्ति पैदा कहाँ से हो जाते हैं. 

राज्य सरकार और समाजसेवियों को ये सोचना चाहिए कि  ये कैसा कम्बलवाद है, इसका ठोस समाधान क्या है. जिस तरह वोट का दुरुपयोग रोकने के लिए वोटर की अंगुली पर स्याही लगायी जाती है ठीक उसी तरह कम्बल पाने वाले आदमी का भी रिकॉर्ड होना चाहिए. 

लेखक का एक और मानना है कि  समाजसेवी और सरकारी एजेंसीज की ओर से बांटे जाने वाले कम्बल का गलत इस्तेमाल रोकने के लिए एक ठोस नीति बने और लोग दिल से दान करें ना की अपने को चर्चित बनाने के लिए कयोंकि ताजनगरी वो शहर है कि जहाँ की दानवीरता के अंग्रेंज भी कायल थे और यहाँ के लालाओं ने उन्हें व्यापार जमाने के लिए अपने खजानों के मुंह खोल दिए थे. 

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