शुक्रवार, 10 जनवरी 2014

समाज सेवा या स्व सेवा




पुरानी कहावत है पहला सुख निरोगी काया, दूजा सुख जेब में माया। निरोगी काया के बाद जब जेब में माया आई तो कुछ लोगों ने समाज सेवा करने की ठान ली। परोपकार की भावना के साथ जरूरतमंदों और निशक्तजनों को सहारा देने लगे। परिणाम अच्छे आने लगे और शहर में समाजसेवी के रूप में ठीक-ठाक पहचान और नाम भी होने लगा। गरीबों की मदद के लिए सैकड़ों हाथ आगे आने लगे और जरूरत से ज्यादा चंदा इकट्ठा होने लगा तो समाजसेवा के मायने ही बदल गए और शहर के कई प्रबुद्ध लोग समाज सेवा छोड़कर स्व सेवा में लग गए। ऐसे लोगों को मठाधीश बनाने में मीडिया की भी काफी सक्रिय भूमिका रही। उनके समाजसेवा से जुड़े हर छोटे-बड़े काम में मीडिया आगे-पीछे घूमते हुए कवरेज करने लगा तो ऐसे लोग अखबारों की सुर्खियों में रहने लगे और दूसरे दिन शहर में चर्चा का विषय भी। हींग लगे ना फिटकरी और रंग चोखा ही चोखा। बिना कुछ खर्च किए ही नाम और दाम खूब मिलने लगा तो मानो ऐसे लोगों के दिमाग ही सातवें आसमान पर पहुंच गए और ये खुद को गरीबों का हमदर्द और जरूरतमंदों का मसीहा मानने लगे। गर्मियों में चंद लोगों को पानी पिलाकर अगले दिन के अखबार में अपनी बड़ी सी फोटो छपवाना। सर्दियों में चंद लोगों को 100-200 रुपए के कंबल बांटकर, बुजुर्गों को 50-60 रुपए का खाना खिलाते हुए मुस्कुराते हुए उनके साथ फोटो खिंचवाकर अखबारों के दफ्तरों में फोटो भिजवा देना। अखबारों के दफ्तरों में पैठ बनाने के साथ ही अखबार जगत के नामचीन लोगों से दोस्ती गांठने लगे और हर छोटे-बड़े काम में मीडिया के दोस्तों को बतौर अतिथि बुलाने लगे। इससे ऐसे लोगों के दो हित सधने लगे। एक उस कार्यक्रम का कवरेज दूसरे दिन बेहतर दिखाई देने लगा और शहर में ऐसे लोगों की ख्याति दिन-दूनी रात चौगुनी फैलने लगी। नतीजा ये लोग अपना मुख्य काम छोड़कर ट्रस्ट आदि खोलकर सारा समय समाजसेवा (‘स्वसेवा) में बिताने लगे। अब हाल ये है कि इनकी हर छोटी-बड़ी एक्टिविटी मीडिया में सुर्खी बटोर ही लेती है। हाल ही एक जगह पढ़ने को मिला कि इनाम की इच्छा से दूर शहर में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो कि इमारत की मजबूत नींव की मानिंद चुपचाप गरीबों निशक्तजनों के उत्थान में लगे हैं। शहर के उक्त मठाधीशों को ऐसे सच्चे समाजसेवियों से समाजसेवा का पाठ सीखने की जरूरत है और साथ ही ये वक्त उनके आत्ममंथन के लिए भी है कि क्या वे सही मायने में समाज के गरीब निशक्त तबके की सेवा कर रहे हैं या स्व सेवा। अगर वे समाजसेवा छोड़ स्वसेवा में लगे हैं तो उन्हें फिर से नई शुरुआत करने का वक्त है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें