सोमवार, 6 जनवरी 2014

कहावत जिसका काम उसी को साजे और आज


पुरानी कहावत है जिसका काम उसी को साजे। वर्तमान में आज के संदर्भ में इसका अर्थ ही बदल गया है, ऐसा इसलिए क्योंकि आज के दौर में अपने-अपने क्षेत्र के दिग्गज और विशेषज्ञ अपना काम छोड़कर दूसरे क्षेत्र में हाथ आजमा रहे हैं। इस चलते जगह-जगह ज्ञानचंद-रायचंद एंड कंपनी के लोग देखे जा सकते हैं। देश की राजनीति से लेकर तमाम छोटे-बड़े मुद्दों लेकर हमारे शहर के किसी कॉलोनी से लेकर पुराने मोहल्ले तक। जो आदमी अपने शहर से कभी बाहर ही नहीं गया हो, लेकिन देश-दुनिया के मामलों पर बात छिड़ते ही वो सबकुछ छोड़-छाड़ ऐसे ज्ञान बघारने लगता है, मानो वो इस विषय का नामी विशेषज्ञ हो।
वहीं, शहर में ऐसे लोगों की भी कमी नहीं हैं, जिन्होंने खूब दाम कमा लिए हैं और नाम के फेर में अपने काम से इतर इधर-उधर खूब देखे जा सकते हैं। किसी ना किसी कार्यक्रम में गाहे-बगाहे पहुंच जाते हैं और मंच पर माइक पकड़कर ऐसे ज्ञान की बरखा करते हैं कि मानो संबंधित विषय में इन्होंने पीएचडी कर ली हो। अगले दिन अखबारों लोकल चैनलों में इनकी तस्वीरें और बाइट खूब छपती और चलती भी है। इसे मीडिया की मजबूरी कह लें या जरूरत कि ऐसे लोगों की एक जमात खड़ा करने में उसका भी कमोबेश कहीं ना कहीं योगदान है, क्योंकि टीआरपी या रीडरशिप की होड़ में उसे भी ऐसे लोगों को गाहे-बगाहे इन लोगों को जोड़कर रखना पड़ता है, ताकि कभी उनका कोई कार्यक्रम हो तो ये भीड़ जुटाऊ लोग उनके लिए भीड़ जुटा सकें और मीडिया अपने कार्यक्रम को सफल बताकर वाहवाही लूटने के साथ ही खुद की पीठ खुद ही थपथपा सके। ऐसे लोग खुद को किंगमेकर या राजनीति का रामविलास पासवासन समझते हैं कि जिन्हें हर हाल में लाइमलाइट में रहना होता है, चाहे कार्यक्रम कोई सा भी और केसा भी क्यों ना हो। कभी-कभी तो उन चेहरों को देखकर हंसी आती है कि जो कि कैंडल लाइट या किसी विनयांजलि जैसे कार्यक्रम में भी महंगी साड़ियों और कपड़ों में लक-दक होकर और पाउडर-लिपिस्टिक पोतकर ऐसे पहुंच जाती हैं मानो किसी खुशी के काम में आए हों। ऐसे लोगों को लाइजनिंग मैनेजर कहना ठीक होगा। लाइजनिंग की फिल्ड में हुनरमंद ये लोग अपना काम निकलवाना बखूबी जानते हैं।

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