जैसे जैसे भौतिक प्रगति हो रही है, मानव अपनी मानवीय संवेदना खोता जा रहा है। उसे केवल अधिकार याद हैं कर्तव्य नहीं। आज के समय की सबसे बड़ी चुनौती इंसानियत को जिंदा रखने की है। इसके लिए लफ्फाजी नहीं अपितु समर्पण से कम करने की जरुरत है।
सोमवार, 22 फ़रवरी 2016
आरक्षण का दंश
अब भारत के
लिए एक बहुत
बड़ा नासूर बनता
जा रहा हैं
। यह राष्ट्र को
जितनी क्षति पंहुचा
रहा है और
उसकी छवि ख़राब
कर रहा है
उससे ज़्यादा भारत
के आने वाले
भविष्य और सपूत
जो की अपनी
बौद्धिक क्षमता से आपने
प्रदेश ही नहीं
बल्कि विदेशो में
भी सम्पूर्ण राज्य
करने का जो
उत्साह है, वह
उत्साह आत्महत्या में तब्दील
होता जा रहा
है । आज
जाट आरक्षण में
जो कल राष्ट्र की
संपत्ति व जनहानि नागरिको के बीच
में भय की
स्थिति देश विदेश
से आने वाले
पर्यटकों का बेहाल
होते हुए टीवी
पर देखना व
अखवारों के माध्यम
से जानकारी आने
के बाद लेखक
का मन इतना
विचलित हो गया
कि वह अपने
आपको यह लिखने
से रोक नही
सका। जो जाट
आरक्षण आंदोलन में राष्ट्र
की संपत्ति का
नुकसान हुआ है
उसकी भरपाई एक
बार फिर आम
जनता को कर
अदा करके पूरी
करनी पड़ेगी।समझ से
परे हो रहा
है क्या हम
भारतीय शुरू से
ऐसे ही थे
कि भीख मांग के खाने वाले
नरभक्षियों की तरह
आरक्षण की आड़
में जंगल राज
पैदा करना देश
की संपत्ति के
साथ आम पब्लिक की
संपत्ति को नष्ट
करना मात्र ये
दर्शाता है कि
हम राजनैतिक और देश
की वयवस्था को
चुनौती दे कर
उन्हें मजबूर कर देंगे।
अपनी मांगों के
प्रति मुझे फिल्म
का वो सीन
याद आता है
जिसमे खलनायक एक
चाकू की नोक
पर नारी की
इज़्ज़त लूटने पर
उससे विवश करता
है और एक
फिल्म में बाप
को बच्चे की
धमकी देकर उससे
नाजायज़ काम कराता
है आज जो
सरकार की हालत
दिखाई दे रही है
वो उसी नायका
और बच्चे के
बाप की तरह
दिखाई दे रही है, इधर
कुँआ उधर खाई
।कब तक राजनैतिक
लोग अपने फायदे
के लिए इस
तरीके के अव्वल
दर्जे के घटिया
पैतरे अपना कर
राष्ट्र को नुकसान
पंहुचाते रहेंगे ।मुझे लगता
है कि इन
राजनैतिक लोगो को
अपने ग्रेह्वान में झांकना
चाहिए और अपने
परिवार का कोई
सदस्य ऐसे आरक्षण के दंश
में फसना चाहिए
और आरक्षण के
कारण अपनी क़ाबलियत
का गला घुटते
हुए और आत्महत्या
होते हुए देखेंगे,
शायद तब ही
इन लालचियों का
राष्ट्र के प्रति
प्रेम जागेगा,हांलाकि
राष्ट्र की कई
न्यायालयों में आरक्षण
जैसे दंश पर
अपनी कई महत्वपूर्ण
टिप्पड़िया की है।
परन्तु भारत का
एक बहुत बड़ा
बौद्धिक वर्ग क्यों
इस विषय पर
नही बोलता है ये
समझ से परे
है जबकि वह
ये जानते है
कि यह भष्मासुर
की आग है,
इसमें एक दिन
उसे भी जलना
पड़ेगा। फिर भी
वह अपनी आवाज़
व मांग न
तो किसी प्लेटफॉर्म
पर उठा रहा
है और न
ही राजनैतिक दलों
को उनकी मनमानी रोकने का
प्रयास कर रहा
है। दुनिया भर
के कार्टून और
मैसेज तो हमें
मिलते है पर
इसको रोकने के
लिए कोई ठोस कदम
नही उठा
रहे हैं । ऐसा मेरी
जानकारी में नहीं
है मुझे लगता
है की एक
बौद्धिक लोगो को
इस विषय पर
चिंतन करके ठोस
कदम उठाना चाहिए
और न्यायलयों के माध्यम
से राज्य और
केंद्र सरकार पर दबाब
बनाना चाहिए। हर
शहर के विधायक
सांसद के साथ
न्यायलों से भी
मदद लेनी चाहिए।
मेरे हिसाब से अब
समय आ गया है
कि इस कैंसर रुपी बीमारी
को जड़ से खत्म
करने के लिए
आवाज़ उठाई जायें।
लेखक का मानना है कि आरक्षण केवल इन लोगों
को मिलें ।1.
आर्थिक
आधार पर हर
गरीब को, चाहे
वो किसी जाती
धर्म का क्यों
न हो ।
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