बच्चे मन के सच्चे, सारी जग की आंख के तारे.....
उपरोक्त गाने का अर्थ देखें और गौर करें तो मालूम होता है कि इसमें बचपन का कितना सजीव चित्रण किया गया है और ये नौनिहालों के प्रेम के प्रति जीवंत उदाहरण भी पेश करता है, लेकिन आज माता-पिता की आंख के तारों को स्कूल प्रशासन, जिला प्रशासन और समाजसेवी संस्थाओं ने अपने कार्यक्रमों को सफल और आकर्षित बनाने का एक जरिया बना लिया है। इन कार्यक्रमों में जिस तरीकों से नौनिहालों का इस्तेमाल किया जा रहा है, उससे माता-पिता के हृदय को काफी दुख पहुंचता है। आप अक्सर न्यूज पेपर्स में पढ़ते और फोटो देखते होंगे कि निजी व सरकारी कार्यक्रमों में या अन्य किसी प्रकार के कार्यक्रमों में नौनिहालों का प्रदर्शन आवश्यक सा हो गया है। किसी भी स्कूल की रैली हो या कोई और प्रदर्शन वह इनके बिना अधूरा है। यहां एक वाक्ये का जिक्र करना उचित रहेगा, जिसे सुनकर आप उन नौनिहालों की दयनीय स्थिति का अंदाजा अच्छे से लगा सकेंगे। अभी सिने जगत की एक नामी अभिनेत्री ने एक नामचीन न्यूज चैनल के यमुना बचाओं कार्यक्रम में हिस्सा लेने आगरा आईं और इस कार्यक्रम में शहर के तमाम स्कूलों के बच्चे भी पर्यावरण बचाओ अभियान का हिस्सा बने। काफी अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि 4-5 घंटे तक भूखे प्यासे नौनिहाल इस कार्यक्रम में बैठे रहे। एक ओर तो हम नौनिहालों को देश का भविष्य मानते हुए उन्हें भगवान का दर्जा देते हैं, वहीं, दूसरी ओर से नौनिहाल एक अभिनेत्री के इंतजार में घंटों धूप में बैठे रहे। आखिरकार वो क्षण भी आया कि जब अभिनेत्री आई भी और पांच मिनट के फोटो सेशन के बाद फुर्र हो गई। टीवी चैनल का कार्यक्रम भी हो गया और पांच मिनट में यमुना भी निर्मल हो गई। मुझे अभी तक ये समझ नहीं आया कि उस कार्यक्रम से किसे और क्या फायदा पहुंचा। दुनियाभर का भीड़-भड़क्का वहां जमा रहा। इसमें वहां दर्शक बने तमाम लोगों का समय भी खराब हुआ और जो नौनिहाल वहां आए थे, उनकी एक दिन की पढ़ाई ठप हुई सो अलग। वैसे ही कॉलेज और स्कूलों में साल भर में कितने दिन सही मायने में पढ़ाई होती है। ये किसी से भी छुपा हुआ नहीं है। इसके अलावा शहर में ही होने वाले कई कार्यक्रमों में सेलिब्रिटी के इंतजार में नौनिहालों को बेहोश होते हुए भी देखा है। बड़ा ताज्जुब होता है कि स्कूल प्रशासन जो कि एक तरीके से बच्चों का अभिभावक होता है और जो टीचर उनके मार्गदर्शक होते हैं। जो समाजसेवी कार्यक्रम आयोजित करते हैं और जो जिला प्रशासन जिस पर कि सभी प्रकार और सभी तरफ से सुचारू रूप से जनजीवन चलाने की जिम्मेदारी होती है। वो इतने कठोर और लापरवाह कैसे हो जाते हैं कि खुद तो सर्दी-गर्मी और बरसात से बचाव का इंतजाम करते हैं और बच्चों को तेज धूप और सर्द हवाओं को झेलने को मजबूर करते हैं। जहां ना तो उनके खाने और पीने की ही कोई उचित व्यवस्था होती है। आश्चर्यजनक बात है कि 1-2 घंटे चलने वाला कार्यक्रम कई-कई घंटे लेट हो जाता है और बच्चे तड़पते रहते हैं। मुझे ये बात समझ नहीं आती कि स्कूल प्रशासन की अभिभावक होने की जिम्मेदारी, समाजसेवियों का समाजसेवा पन, प्रशासन की प्रशासनिक जिम्मेदारी, उस समय क्यों नहीं जागती है कि जब बच्चों को किसी कार्यक्रम में बुलाने की बात उठती है या वो अपनी आंखों से बच्चों को तड़पता हुआ देखते हैं।
मेरे मन में एक ही प्रश्न उठता है कि क्या सारे के सारे स्वार्थी और ढकोसले बाज हैं। मेरा तो ये मानना है कि बच्चों को केवल स्कूल के कार्यक्रमों या राष्ट्रीय पर्व जैसे आयोजनों में भाग लेने तक ही सीमित रहना चाहिए और इस तरीके के आयोजकों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करनी चाहिए, जो कि अपने कार्यक्रमों को सफल बनाने के लिए बच्चों का बंधुआ मजदूरों की तरह उपयोग करते हैं। मेरा सभी सामाजिक संगठनों, स्कूल के प्रिसिंपलों और जिला प्रशासन से अनुरोध है कि नौनिहालों को बंधुआ मजदूर बनाने से रोकने के लिए उचित कदम उठाएं। साथ ही ये आग्रह भी है कि अभिभावकों को स्कूल प्रबंधन व जिला प्रशासन से साफ शब्दों में कह देना चाहिए कि उनके नौनिहालों का इस तरीके से उपयोग ना किया जाए। अगर कोई इसके बाद भी ना माने तो न्यायालय की शरण लेनी चाहिए। मेरे अनुसार ये बच्चों के प्रति एक जघन्य अपराध है। अगर आप मेरी बात से सहमत हैं तो इस ब्लॉग पर अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें।
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