सोमवार, 2 सितंबर 2013

खाद्य सुरक्षा बिल :सरकार की मजबूरी या दरियादिली


देश की ये कितनी बड़ी विडंबना है कि आजादी के 65 साल गुजरने के बाद भी आज भारत वर्ष जो कि कभी कृषि प्रधान देश कहलाता था और जहां अनाज के प्रचुर भंडार थे। जहां तक मुझे याद है या मेरी समझ मेरा साथ दे रही है तो भारत के कृषि प्रधान देश रहने के दौरान शायद ही ऐसा किस्सा सुनने को मिला हो कि देश का कोई नागरिक कभी भूखा सोया हो। उसे किसी ना किसी तरीके से खाने के लिए दो जून की रोटी या कंद-मूल, फल की व्यवस्था हो जाती थी। ये व्यवस्था चाहे उसके स्वयं के द्वारा की गई हो या समाज के प्रधान व धनाढ्य लोगों अथवा प्रकृति के द्वारा। आज राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता, विकास के नाम पर राजनीतिक भ्रष्टाचार से शासक द्वारा जनता को दो जून की रोटी मुहैया कराने का काम कहीं पीछे छूट सा गया है और आज खाद्य सुरक्षा राजनीतिक दलों के लिए एक मुद्दा बन गया है। आज हालात ये है कि भारत की जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा भुखमरी के दौर से गुजर रहा है। हमारे देश में जिस तरीके से आर्थिक नीतियां लागू हो रही हैं और  राजनीतिक लाभ लेने के लिए जिस तरीके से अमीर और गरीब के बीच खाई खींची जा रही है। विकास के नाम पर खेतों को खत्म किया जा रहा है और जिस प्रकार से देश में भ्रष्टाचार दिनों-दिन सुरसा की तरह से बढ़ रहा है। ऐसे समय में केंद्र सरकार की ओर से जो खाद्य सुरक्षा बिल लाया गया है। उसने हमें सोचने को विवश कर दिया है कि पिछले करीब चार सालों से सोई हुई सरकार ने आनन-फानन में ये विधेयक लाकर केवल अपना राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध किया है। यहां सोचने वाली बात ये है कि क्या ऐसा करना सरकार की सुशासन की नीति है या कुछ और। सरकार प्रत्येक व्यक्ति को खाद्य सुरक्षा मुहैया कराने का मन बना रही है और इसके लिए लोकसभा में जो बिल लाई है उसके लिए वो निश्चित रूप से बधाई की पात्र है, लेकिन कुछ ऐसे प्रश्न मन में कौंध रहे हैं, जिन पर कि चिंतन करना चाहिए।
एक तरफ कश्मीर और दक्षिण भारत में सस्ते टीवी और चावल बांटे जा रहे हैं तो बिहार व उत्तर प्रदेश जहां पर सबसे ज्यादा भुखमरी की स्थिति है और उनका (केंद्र) राजनीतिक हस्तक्षेप भी कम है। आंकड़ों की बाजीगरी से सरकार ये दिखाकर कि वो हर गरीब को खाद्य सुरक्षा मुहैया कराएगी अपनी पीठ सरकार खुद थपथपा रही है। यहां दूसरा सवाल ये भी उठता है कि अगर हम भारतीय मानसिकता के अनुसार सोचें तो सरकार का ये महत्वाकांक्षी कदम जिस पर करीब सालाना सवा लाख रुपये का खर्च आना है वो वास्तव में आंकड़ों का हेरफेर है या कुछ और। क्या ये खाना उसके असली हकदार तक पहुंचेगा या सरकारी तंत्र अथवा लालाओं की तिजोरी भरेगा।
वहीं भारतीय जनता पार्टी जो कि प्रमुख विपक्षी दल है। एक ओर जहां वो सरकार की आर्थिक नीतियों को कोस रही है तो वहीं वह दूसरी ओर वोटों की राजनीति के तहत खाद्य सुरक्षा बिल, जिससे कि सरकार पर सब्सिडी  का बोझ बढ़ेगा, उसी का समर्थन कर रही है। और तो और उत्तर प्रदेश व बिहार को ही खाद्य सुरक्षा बिल से सबसे ज्यादा फायदा मिलेगा, लेकिन इन सूबों के मुखिया अल्पसंख्यकों के प्यार या यों कहें कि वोटों की राजनीति के चलते बिल की आलोचना से भी परहेज नहीं कर रहे हैं। वैसे जिम्मेदार भारतीय और सरकार के साथ विपक्ष की भी ये जिम्मेदारी है कि चाहे किसी भी परिस्थिति या आर्थिक परेशानियों से जूझ रहे हो. साथ यदि हम ईमानदारी से पात्र व्यक्ति को उसका हक नहीं पहुंचाएंगे या दिलाएंगे तो ऐसा करके हम वंचित वर्ग को भुखमरी की खाई में झोंक देंगे और भारत को ज्यादा बड़े गड्ढे में गिरने से नहीं बचा पाएंगे।

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