रविवार, 1 सितंबर 2013

आज कितने सार्थक हैं खेल दिवस के कार्यक्रम

 देश की माटी में हमेशा से एक उर्वरा किस्म की तासीर रही है, जिसने कि हमें ध्यानचंद, दारासिंह और वीनू माकंड जैसे सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी दिए हैं। ये माटी की ही तासीर का कमाल है कि यहां के पहलवानों ने मिट्टी को ही बदन पर लपेटकर कुश्ती के तमाम दांवपेच सीखे हैं। अपनी प्रतिभा से उन्होंने दुनियाभर में अपना और देश का नाम रोशन किया। अगर देखा जाए तो खेल के प्रति लगन व हमारे खिलाड़ियों की शक्ति लगान फिल्म के जरिए अच्छे से समझी जा सकती है। आज विकास की राह में खेल के मैदान में खत्म होते जा रहे हैं। अभी 29 अगस्त को खेल दिवस होने के बावजूद खिलाड़ियों में कोई उत्साह नहीं दिखाई दिया। आज तमाम आधुनिक सेवाओं से लैस होकर महानगरों में खेल के मैदान (स्टेडियम) तो बन गए हैं और उनमें एक बहुत बड़ी सरकारी फौज भी तैनात है, लेकिन उनकी भावना ना तो खेल और खिलाड़ियों के साथ है। खेल दिवस के दिन भी जो कार्यक्रम होने थे और जिन्हें इस महत्वपूर्ण दिन मनाया जाना था, वो मात्र औपचारिक रस्म या खानापूर्ति तक ही सिमटकर रह गए। आज खेल जगत में खेल भावना का स्थान राजनीतिक भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद की भेंट चढ़ गया है। ऐसे समय में विश्वस्तरीय प्रतियोगिता में हमेशा बेइज्जती का सामना करना पड़ता है, जाकि भारत में जितनी जमीन और जनसंख्या है और जो मानव श्रम उपलध है। अगर इन सभी को सही तरीके से निखारा जाए तो हमारे यहां करीब दो दर्जन से अधिक खेल ऐसे हैं, जिसमें कि हमारे खिलाड़ी हीरे जड़ित पुरस्कार भी ला सकते हैं।
अगर आज जरा गौर फरमाएं तो हमारे यहां गांव का हर व्यक्ति जो कि ढेला फेंकता है। उसकी बराबर क्षमता से किसी भी देश का व्यक्ति ऐसा कतई नहीं कर सकता।
दूसरा उदाहरण हमारे वे खिलाड़ी हैं जो गांवों केागीचों में पत्थर फेंककर आम तोड़ते हैं। ऐसे व्यक्ति एक ही बार में एक निशाने से 10-10 आम तोड़ पाने में सक्षम हैं। ये तो छोड़िए अगर आप कभी उनकी साइकिल पर बैठ जाएं तो उनकी साइकिल हवा से बातें करती हुई दिखाई देती है। यहां प्रश्न ये उठता है कि इतनी क्षमताओं के बाद भी हम क्यों फिसड्डी हैं। बड़ा सीधा सा प्रश्न है। दूसरे देशों में खेलों को प्रोफेशन माना गया है और जीवनपर्यंत सरकार उस खिलाड़ी के परिवार को अपनी जिम्मेदारी मानकर उसके जीवन यापन की व्यवस्था करती है। हमारे यहां दिखावे के रूप में खिलाड़ी को प्रोत्साहन की बात तो की जाती है और सम्मान के रूप में उसे सर्टिफिकेट व तमगा देकर इतिश्री समझ लेते हैं। आज हमारे देश के कम से कम तीन दर्जन ऐसे खिलाड़ी सामने आए हैं, जो कि सड़क पर अपने मेडलों की नुमाइश पर या उन्हें बेचकर अपने परिवार की दो जून की रोटी की व्यवस्था में जुटे हैं। वो अपने इष्टमित्रों व परिजनों से कहते हैं कि जीवन में सब कुछ करना, लेकिन खिलाड़ी मत बनना। भले ही भिखारी बन जाना। हम खेल दिवस के मौके पर ही उन खिलाड़ियों को ना तो याद करते हैं और ना ही उनके जीवन और खेल की प्रतिभाओं को आने वाले खिलाड़ियों को किस्से सुनाकर उनमें उत्साह का संचार करते हैं । शहर के ही चार खिलाड़ी या संस्थाएं, (जिन्हें कि समाजसेवी कहलाने का कोई भी मौका चाहिए) ऐसे लोग और संस्थाएं चंद खेल अधिकारियों के संग फोटो खिंचाकर बिना किसी प्लानिंग व विचारधारा के अगले दिन के अखबार की सुखियां बनते हैं। ऐसे में जो सच्चा खिलाड़ी या उभरती हुई प्रतिभाएं होती हैं। अखबार में अपने से कमतर खिलाड़ियों की छपी हुई फोटो देखकर उनका मनोबल गिर जाता है और उनकी आत्मा भाई-भतीजावाद, भ्रष्टाचार को कोसती है। किसी भी विशेष दिवस की सार्थकता तभी होती है कि जब उस दिन को वैभवपूर्ण तरीके से और उस क्षेत्र के सम्मानीय लोगों के साथ गरिमापूर्ण तरीके के साथ मनाया जाए। कई खिलाड़ी तो दबी जुबान में कहते भी हैं कि कुछ मठाधीशों, खेल संगठनों के प्रमुख अधिकारी तो हमारा खून चूस रहे हैं। ये जब तक अपने पदों से नहीं हटेंगे और सरकार के साथ व्यापार जगत के लोग हमें सहयोग नहीं करेंगे तब तक भारत को खेल जगत में अपना सम्मानजनक स्थान बना पाना मुश्किल रहेगा साथ ही इस दिवस को मनाना हाकी के पुरोधा स्व. दादा ध्यानचंद की आत्मा को कष्ट पहुंचाना होगा। खेल केवल खेल जगत में अपना नाम रोशन करने की वस्तु नहीं है। यहां पं. जवाहर लाल नेहरु ने लाल किले से अपने पहले भाषण में जो बात कही थी वो सच साबित होती नजर आती है। उन्होंने कहा था कि भारत में जितने मैंदान हैं, उनमें अगर हम उतर जाएं तो हमें अस्पताल जाने की कभी जरूरत नहीं पड़ेगी। हमें अस्पताल नहीं खेल मैदान चाहिए। जिस देश के प्रधानमंत्री की ऐसी भावना थी, सोचिए जिस तरीके से खेल दिवस को महज रस्म अदायगी की तरह मनाया गया है, उससे उनकी आत्मा कितनी कचोट रही होगी।
लेखक का सभी खेल प्रेमियों से आग्रह है कि वो खेल को खेल भावना की तरह खेलें और अपने दम पर साथियों के साथ मिलकर ऐसी खेल भावना व संगठन तैयार करें कि देश की 125 करोड़ की जनता को अस्पताल की आवश्यकता ही ना पड़े। विश्व में होने वाली स्पर्धाओं में सर्वाधिक पदक प्राप्त कर देश का नाम रोशन करें।

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