रविवार, 11 अगस्त 2013

पाक को करारा जवाब देने का सही वक्त

भारत को आजाद कराने के लिए हमारे हजारों क्रांतिकारियों ने अपने प्राणों का बलिदान किया था और सब कुछ देश पर न्यौछावर कर दिया था, तब कहीं जाकर हमें आजादी मिली थी।  इस उपलधि में उस समय के नागरिकों का अपने-अपने स्तर पर भागीदारी व योगदान था। आजादी को पाने में हम किसी के योगदान को कमतर नहीं आंक सकते। महात्मा गांधी, सुभाष चंद्र बोस जैसे वीरों को हम आजादी पाने का श्रेय देते हैं तो मेरे शहर के सेनानियों का भी देश को आजादी दिलाने में योगदान कम नहीं था। आज हर आदमी अपनी मानसिकता व जानकारी के हिसाब से देश को आजादी दिलाने वाले लोगों को सम्मान देता है और सही ठहराता है। वैसे तो विज्ञान के फार्मूले के मुताबिक जब नेगेटिव एनर्जी के साथ पॉजिटिव एनर्जी मिलती है तभी बल्ब जलता है। अगर आज देश के लोग गांधीजी के अहिंसा के तरीके को सही बताते हैं और उन्हें आजादी दिलाने का श्रेय देते हैं तो दूसरी तरफ काफी बड़ी संख्या ऐसे भारतीयों की भी है जो कि सुभाष चंद्र बोस, चंद्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल और भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों के विचारों से आज भी सहमत हैं।  आज भी इन लोगों की संख्या अहिंसा के अनुयायियों से कहीं ज्यादा होगी। अगर इन क्रांतिकारियों ने अपना लहू नहीं बहाया होता या अंग्रेजों पर अटैक की नीति नहीं अपनाई होती तो शायद हमें आजाद होने में और ज्यादा समय लगता। सीधा तात्पर्य ये है कि प्यार के साथ मार का भय होना भी आवश्यक है। यहां मुझे एक कहावत याद आती है कि
किसी की सज्जनता को उसकी दुर्बलता मानने की भूल नहीं करनी चाहिए।
आज के समय में पाकिस्तान जिस तरीके से अपनी गतिविधियों को अंजाम दे रहा है और उसके प्रति जो हमारी सरकार का रवैया है। उससे स्वर्ग में बैठे बोस, आजाद और उन जैसे क्रांतिकारियों को काफी तकलीफ होती होगी कि आज हमारे देश की ये कैसी सरकार है कि इसे ये नहीं मालूम कि जिसकी लाठी उसकी भैंस। बड़े ही ताज्जुब की बात है कि कांग्रेस के ही एक पूर्व प्रधानमंत्री लालाहादुर शास्त्रीजी जो कि देखने में साधारण से किसान लगते थे। उनके प्रधानमंत्रित्वकाल में भारत-पाक की लड़ाई के दौरान भारत के सम्मान के लिए अमेरिका जैसे ताकतवर देश को भी दरकिनार कर दिया था, जबकि भारत को उस लड़ाई के लिए काफी खर्च उठाना पड़ा। इस युद्ध में जब पाक को हार करीब लगी तो उसने अमेरिकी दरबार में दौड़ लगाई और खुद को बचाने की अमेरिका से गुहार की। उस युद्ध में हमारे सैनिक लाहौर के काफी करीब थे और जंग अगर और चलती तो शायद आज लाहौर पर तिरंगा फहरा रहा होता। उस समय अमेरिका ने भारत पर ये दबाव बनाया कि अगर उसने युद्ध नहीं रोका तो वह भारत को गेहूं की सप्लाई रोक देगा। इस पर स्वाभिमानी शास्त्रीजी का जवाब था कि सड़ा हुआ गेहूं खाने से तो अच्छा है कि हम भूखे ही मर जाएं। उनके इस जवाब से मेरे मन में उनकी लौह पुरुष की छवि आज भी अंकित है। शास्त्रीजी ने तुरंत ही देशवासियों से अपील की कि देशवासी सोमवार का व्रत रखें और अनाज बचाकर लड़ाई में सहयोग करें। इस निर्णय के गवाह आज भी कई कांग्रेसी होंगे, जो कि उस समय शास्त्रीजी की सरकार में मंत्री या संगठन में किसी पद पर रहे होंगे।
आज की परिस्थितियों को देखते हुए मन में ये विचार कौंधता है कि आजादी के समय और बाद में जो गलती नेहरुजी ने की उसका परिणाम हम लोग आज भी भोग रहे हैं। कहीं वही गलती वंशानुगत राजनीतिक परिवार द्वारा तो नहीं की जा रही। ऐसे में सरकार में बैठे पक्ष-विपक्ष के लोगों को भारतीय जनता की उम्मीदों पर खरा उतरना चाहिए और देश के वीर लालों को मरने सेाचाना चाहिए। अगर आज भी केंद्र सरकार ने कोई ठोस कदम नहीं उठाया और अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के लिए मात्र शांति वार्ता ही करते रहे तो पाकिस्तान जैसा दुष्ट राष्ट्र कहीं इस कहावत को चरितार्थ ना कर दे। शेर आया, शेर आया और वास्तव में ही एक दिन शेर गांव में आ गया। अत: हमें पाकिस्तान को साक सिखाना चाहिए और फस्र्ट एंड लास्ट  या आर-पार की लड़ाई लड़नी चाहिए। इसके लिए देश का प्रत्येक नागरिक चाहे वो किसी भी क्षेत्र का हो अपनी ओर से हरसंभव मदद करे। आज पाकिस्तान को साक सिखानााहुत जरूरी है क्योंकि जिस तरीके से चीन भी आजकल भारत में घुसपैठ कर रहा है उससे चीनी सीमा से सटे भारतीय इलाकों में रह रहे लोगों की नींद हराम हो गई है। आज केंद्र सरकार को देश के आत्म सम्मान कोाचाने के लिए करो या मरो की नीति नहीं,ाल्कि देश की खुशहाली और शांति से जीने की लड़ाई शुरू कर देनी चाहिए। साथ ही पाकिस्तान को जवाा देना चाहिए कि तुम अगर एक मारोगे तो हम 10 मारेंगे। आ ये फैसला कहानी-किस्सों से नहीं मिटाया जा सकेगा। आ उचित निर्णय लिए जाने का वक्त आ गया है। 

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