सोमवार, 5 अगस्त 2013

बढती आत्महत्या की घटनाएँ, जिम्मेदार कौन


आज आये दिन अखबारों में  पढने को मिलता है कि  परीक्षा में  पास नहीं होने, काम नहीं चलने या आर्थिक तंगी जैसे कारणों से फलां आदमी ने आत्महत्या कर ली. आस-पड़ोस में  रिश्तेदारी, और शहर में  ऐसी घटनाएँ बढती ही चली जा रही हैं. मन में  विचार कौंधता है कि  हर रोज आदमी क्यों आत्महत्या का रास्ता अपनाता जा रहा है. दिमाग में  तुरंत ये विचार आता है कि  भागदौड़ भरी जिंदगी में  no 1 बनने की परिवार की चाहत, समाज में  गलाकाट प्रतिस्पर्धा, कमरतोड़ महंगाई, अवसरों के अभाव के साथ खुद से संतुष्ट न हो पाना ये चाँद कारण है जिनके चलते मजबूर होकर आदमी आत्महत्या को मजबूर होता है. वो समय्बहुत ही दिल दहलाने वाला होता है कि  जब बूढ़े माँ-बाप का इकलौता बीटा रैगिंग से त्रस्त होकर पैसे के आभाव के बावजूद पढाई पूरी होने पर भी नौकरी न मिलने के कारन खुद को दोषी मानते हुए मौत को गले लगा लेता है और बूढ़े माँ बाप को मानसिक और  शारीरिक रूप से जीवन भर का कष्ट देकर चला जाता है. ऐसी घटनाओं को पढ़ते समय दिमाग में ये विचार आता है कि वे माँ बाप जो कि  खुद कुछ नहीं कर पाए उन्हें अपने बच्चों से अत्यधिक उम्मीदें करना उचित है. नए नए खुले पब्लिक स्कूल जहाँ कि  भाईचारे का अभाव है वहां पढाई का बोझ और नए tichers का सरेआम स्टुडेंट्स को परेशान करना या tution के लिए दबाव बनाना कितना उचित है. कुकुरमुत्तों की तरह से     प्रोफेशनल कोर्सेज की दूकान खोलकर उन्हें उन्ही के हाल पर छोड़ देना क्या सही है. ऐसे समय में इन सब बातों के साथ भारत में  आरक्षण, भाई भतीजावाद जाती धर्म का दंश जब होनहारों को झेलना होता है तो उसके पास सिवाय आतमहत्या के और कोई चारा नहीं बचता है ये तो बहुत बुरा हुआ अखबार में  पढने के बाद हम केवल    इतना भर कह कर अपनी जिम्मेदारी से मुक्ति पा लेते हैं.
ऐसे समय में  हमारे मन में ये प्रश्न आया कि क्या इसमें दिन प्रतिदिन बढ़ोतरी सामाजिक असमानता आरक्षण गलाकाट प्रतिस्पर्धा  तो वजह नहीं है. मन में  इसका जवाब आता है हाँ. मुझे इन सब बातों के साथ एक  बात और समझ आती है जो कि  विचार करने योग्य है. बढ़ते हुए एकल परिवार तो कहीं इस समस्या का मूल कारन तो नहीं है क्योंकि पहले सामूहिक परिवार होते थे और हर सुख-दुःख, समस्या और अपनी इच्छाओं की पूर्ति को किसी न किसी माध्यम से सुलझा ही लेते थे. आज बड़े परिवार धीरे धीरे हम दो और हमारे दो  तक ही सीमित रह गए हैं. कई एकल परिवार ऐसे हैं कि  जिनमे माँ या बाप दूसरे शहर में  नौकरी करते हैं या सुबह से शाम तक  ऑफिस में  बिजी रहते हैं, इससे इन परिवारों में  बच्चा मानसिक रूप से आत्मविश्वासी नहीं बन पाता है. कुछ अभिभावक तो अपने बच्चों को बोर्डिंग स्कूल में  भेज देते हैं। आज भरे पूरे परिवार (दादा-दादी, चचा चाची) तो दूर बच्चे अपने माँ बाप के स्नेह से भी दूर हो जाते हैं और बेहतर भविष्य बनाने की चिंता में   हमेशा दबाव में  रहते हैं और छोटी छोटी घटनाएँ भी उन्हें हिलाकर रख देती हैं. आजकल सड़क छाप रोमियो भी आत्महत्या करते नजर आते हैं, जबकि पहले सामूहिक परिवार में  बहन-भाभियों के साथ वो अपनी इच्छा जाहिर करके ऊँच नीच में  फर्क कर लेते थे. इसी तरह से सरकारी स्कूल में यूनिफार्म का सिस्टम था, वहां पर नैतिकता, आत्मविश्वास और भाईचारे का पाठ पढाया जाता था और वहां के गुरु भी स्टूडेंट्स की समस्या हल करने को सदैव तत्पर रहते थे.
अतः मुझे लगता है कि  एकल परिवार की जगह हम सामूहिक परिवार में  रहें तो भरण पोषण की समस्या और आत्मविश्वास की जड़ें मजबूत की जा सकती है. ऐसा करके हम आत्महत्या रूपी भस्मासुर पर रोक लगायी जा सकती है.







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