शुक्रवार, 9 अगस्त 2013

पहला सुख निरोगी काया, दूजा सुख जेब में माया


किसी भी देश की शक्ति वहां के नागरिक होते हैं। अगर हम स्वस्थ भारत के निर्माण की अपेक्षा करते हैं तो हमें ये तय करना होगा कि अपने नौनिहालों को उनके विकास के लिए दो महत्वपूर्ण चीजें अवश्य मुहैया कराएं। पहला भोजन और दूसरा बौद्धिक विकास। बच्चे का बौद्धिक विकास उसे घर व स्कूल में मिलने वाली शिक्षा से होता है। इसी प्रकार स्वस्थ शरीर के लिए अच्छा भोजन करने से ही स्वस्थ शरीर बनता है। हमारे देश में एक मुहावरा प्रचलित है.

पहला सुख निरोगी काया, दूजा सुख जेब में माया

आजकल भारतीय व्यंजन के स्थान पर पाश्चात्य भोजन बड़ी तेजी से जगह बनाते चले जा रहे हैं। पुराने जमाने में आदमी अच्छा भोजन खाने के साथ ही सुबह-सुबह व्यायाम भी करता था। इस चलते उसे वृद्धावस्था में भी आजकल की नई-नई बीमारियां छू भी नहीं पाती थीं और वो आज 80 साल की आयु होने के बाद भी किसी नवयुवक की ही भांति काम करता है। आज की पीढ़ी के जो बच्चे हैं, वो भले ही अपने पैरों से ठीक से चलना भी ना सीख पाते हों, लेकिन वे जंक फूड खाने के लिए लालायित रहते हैं। हाल ये है कि उन्हें सभी तरह के जंक फूड के नाम अच्छे से पता हैं। यदि आप खाने की मेज पर दूध, शिकंजी, लस्सी या ठंडाई रख दें और इसके दूसरी तरफ कोल्ड ड्रिंक्स तो ये तय मानिए कि बच्चा कोल्ड ड्रिंक्स ही पसंद करेगा। इसी तरीके से आप उसे घर में बनीं मठरी या आलू का परांठा देंगे तो वो इन्हें देखकर नाक-भौं सिकोड़ेगा और बर्गर-सैंडविच की मांग करेगा। फास्ट फूड के सारे स्वाद उसे इतने ज्यादा पसंद है कि अब तो 24 घंटे ही उसे यही सब चीजें खाने को चाहिए।
शहर में आज जितने भी पब्लिक स्कूल हैं, उनका यदि सर्वेक्षण किया जाए तो वहां चलने वाली कैंटीन बर्गर, सैंडविच, पेटीज आदि से पटी होंगी और वहां लस्सी या ठंडाई की जगह कोल्ड ड्रिंक्स आसानी से मिल जाएंगी। आज बच्चे स्कूल के लंच टाइम में कैंटीन में से जंक फूड ही लेकर खाते हैं और जो बच्चे घर से खाना लाते हैं उनके टिफिन में भी फास्ट फूड ही मिलता है। जंक फूड ना तो सुपाच्य होता है और ना ही सेहतमंद।
आज भागदौड़ भरी जिंदगी में अपने आप को समाज में आधुनिक कहलाने की होड़ में बच्चों के टिफिन से पौष्टिक भोजन जैसे आलू का परांठा, घर में बनी नमकीन, रोटी, फल व हरी सजियां तो जैसे गायब सी ही हो गई हैं। आज ये वास्तविकता है कि टीवी के माध्यम से विदेशी कंपनियों ने अपने उत्पादों का धुआंधार प्रचार करके और तरह-तरह की लुभावनी स्कीमों से भारतीय भोजन को इतना पीछे छोड़ दिया है कि शायद आज की जनरेशन भारतीय व्यंजनों के नाम और स्वाद भी ना जानती हो। आजकल के बच्चों को पिज्जा तो खाने को रोज चाहिए, लेकिन तीज त्योहारों पर चाव से खाने वाले घेवर जैसी मिठाई को देखकर वो मना कर देते हैं।
कहते हैं कि बुरी चीज का समय ज्यादा नहीं रहता। अत: तमाम मेडिकल रिपोर्टों के बाद भी डॉक्टर हर परिवार और हर मरीज को जंक फूड व फास्ट फूड से बचने की सलाह दे रहे हैं। जंक फूड के बुरे परिणाम देखकर केंद्र सरकार भी जागृत हो गई है और केंद्रीय खाद्य मंत्रालय की ओर से जंक फूड की बुराई और स्कूल-कॉलेजों में इस तरह के खाने की बजाए हरी व पत्तेदार सब्जियां, दूध-दही, फल व अंडे जैसी चीजें कैंटीन में रखे जाने के निर्देश दिए जा रहे हैं। साथ ही सरकार ये भी सिफारिश कर रही है कि कैंटीन में इन चीजों को बच्चों के लिए सस्ते रेट पर उपलध कराया जाए।
सूत्रों के मुताबिक अगर दिल्ली हाईकोर्ट ने इस प्रस्ताव पर मंजूरी दे दी तो सरकार इसे सभी स्कूल-कॉलेजों में सख्ती से लागू कराएगी। यहां पड़ोसी राज्य मध्यप्रदेश के जिले ग्वालियर का उदाहरण प्रासंगिक है कि जहां के डीएम ई नरहरि (आईएएस) ने वहां एक आदेश जारी कर स्कूलों में जंक फूड बेचे जाने पर प्रतिबंध लगा दिया था और ऐसा करते पाए जाने पर स्कूल के साथ-साथ शिक्षा विभाग के अधिकारियों (जो इस योजना के क्रियान्वयन के लिए जिम्मेदार हैं) के खिलाफ भी कार्रवाई किया जाना सुनिश्चित किया था। जंक फूड के प्रति डीएम नरहरि की संवेदनशीलता इस बात से पता चलती है कि उन्होंने इसके खिलाफ प्रचार फेसाबुक पर बनाए गए प्रशासन के पेज और अपने निजी पेज पर भी किया था। साथ ही सभी अभिभावकों से भी निवेदन किया था कि अगर वो अपने बच्चे या किसी अन्य स्कूल में भी फास्ट फूड बिकता हुआ देखें तो इस बारे में तुरंत उन्हें सूचित करें। उनका नाम गुप्त रखते हुए दोषियों के खिलाफ कार्रवाई की जाएगी। अगर हम अपने नौनिहालों को स्वस्थ देखना चाहते हैं तो कॉलेज या जिला प्रशासन के ऊपर जिम्मेदारी ना छोड़कर हमें भी जंक फूड के खिलाफ आवाज उठानी चाहिए और सरकार से इस तरीके के फूड बेचने वाली कंपनियों को भारत में आने से रोकने के लिए कहना चाहिए। तभी हम अपने देश व परिवार को हष्ट-पुष्ट और स्वस्थ देख पाएंगे। ग्वालियर के डीएम की इस पहल को अनुकरणीय मानते हुए स्थानीय प्रशासन को आगरा में भी ऐसा ही उदाहरण पेश करना चाहिए।

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