किसी भी बच्चे का मन और तन किसी कुम्हार की गीली माटी की तरह होते हैं कि जिसे जैसा चाहे और जिस आकार में चाहे ढाला जा सकता है। दादा-दादी की बात हो या डॉक्टर्स की ओर से कराया सर्वे सभी का एक ही कहना है कि बचपन पौष्टिक आहार खाने, खेलने-कूदने और ज्ञान का भंडार लेने के लिए होता है। बचपन का खाया हुआ और सेहत के लिए खेल के मैदान से हमजोली करना और बौधिक विकास के लिए ज्ञान प्राप्त करते हुए अपनी युवावस्था को प्राप्त करना सर्वोत्तम होता है, जो कि जीवन पर्यन्त काम आता है, लेकिन आज अपने आप को, अपने बच्चे को इन सब चीजों से दूर रखकर हथेली पर सरसों उगाने की तरह उसे कमाऊ पूत के साथ समाज में एक तारे की तरह चमकाने की होड़ बढती ही जा रही है। आज ढाई या साढ़े तीन साल की आयु में ही बच्चे को पब्लिक स्कूल में एडमिशन दिला दिया जाता है, जबकि आज से 4 दशक पहले 4-5 साल का होने तक भी बच्चे को स्कूल नहीं भेज जाता था और वो घर पर ही मातृत्व सुख का आनंद लेता था।
आज साढ़े तीन साल की उम्र में बच्चे का स्कूल में एडमिशन करा देना सामान्य सी बात है। कहीं कहीं तो बच्चा ठीक से खड़ा होना भी नहीं सीखता है और उससे पहले ही उसके माँ-बाप उसे किसी न किसी फील्ड के सितारे की तरह देखने लग जाते हैं जैसे कि उनका बच्चा क्रिकेट में सचिन तेंदुलकर, टेनिस में सानिया मिर्ज़ा, बैडमिंटन में saina nehwal या और किसी खेल का चमकता हुआ सितारा बने। माँ-बाप की कमोबेश ऐसी ही सोच फिल्म लाइन को लेकर भी है कि उनका बच्चा फिल्मों में शाहरुख़ खान या करीना कपूर की तरह बड़ा स्टार बने। इस तरह की सोच से वो अपनी विलासिता और सामाजिक प्रतिष्टा का एक खाका खींच लेते हैं। इस तरह की सोच में TV ने अमरबेल की तरह काम किया है। आज किसी न किसी चैनल पर बच्चों की प्रतियोगिता का आयोजन करके माँ बाप के मन में ऐसी सोच को बढ़ावा देने का बड़ा हाथ है। कहीं टैलेंट हंट तो कहीं सिंगिंग और डांस competetion जैसे अनेक आयोजन हो रहे है। चाहे TV पर सास-बहु का सीरियल हो या कोई और जब तक उसमे ४-५ बच्चे नहीं होते हैं तो सीरियल पूरा ही नहीं माना जाता है। ऐसे समय में इन सारी चीजों को देखते हुए लगता है कि एक ओर तो हम बाल श्रम कानून लागु कर उसे अमल में ला रहे हैं तो दूसरी ओर इन सब चीजों को बढ़ावा देकर अपनी कब्र खुद ही खोद रहे हैं। क्या इसे सरकार की दोगली नीति नहीं मानना चहिये। एक ओर तो वो गरीब परिवार जो अपने बच्चों को पढाना चाहते हैं, लेकिन आर्थिक अभाव के कारण उसके बच्चे को किसी चाय, पंक्चर की दूकान पर छोटू या मुन्ना बनना पड़ता है और श्रम विभाग छापा मारकर उनका उत्पीड़न करता है। सरकार की अनेक बाल श्रम योजनाएं जो कि समय-समय पर लागु की जाती हैं, जिससे बच्चे शिक्षित और सेहतमंद बनें। मिड-डे माल भी ऐसी ही परियोजनाओं में से एक है।
बाल श्रम के उद्धार के लिए हर मोहल्ले में एक सामाजिक संस्था अपना झंडा उठाये देखने को मिल जाती है, लेकिन ये कितना, कहाँ और कैसे काम करती हैं ये जानना और भूसे के खेत में सुई खोजना एक बराबर है।
बड़े ही आश्चर्य की बात लगती है कि सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं का ध्यान समाज में पैदा होते या बाल बाल कलाकार के रूप में काम करते हुए इन नौनिहालों की ओर नहीं है. क्या ये बाल श्रम कानून के तहत नहीं आते हैं। ऐसा हो या न हो लेकिन आज माँ-बाप को भी ये सोचना चाहिए कि एक तय आयु सीमा के बाद ही बच्चे में छिपी प्रतिभा को निखारने या तराशने का काम करना चाहिए चाहे वो प्रतिभा खेल, गायन या और किसी क्षेत्र से क्यों ना जुडी हुई हो। उन्हें इस बात को भी समझना चाहिए कि गुदड़ी के लाल छिपाए नहीं छिपते हैं. अतः सही समय पर उन्हें गीली मिट्टी की तरह आकार देना चाहिए।
मेरा सभी सामाजिक और बाल श्रम उन्मूलन से जुडी संस्थाओं, प्रशासन और शासन से अनुरोध है कि वो इस तरीके से बाल कलाकारों जो कि बाल श्रम कानून के तहत नहीं आते हैं तो उन्हें लाया जाये और उनका बौद्धिक और शैक्षिक विकास कराया जाए ताकि हम भविष्य में एक सुनहरे भारत के निर्माण की परिकल्पना कर सकें।
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