शुक्रवार, 16 अगस्त 2013

पुरस्कारों में भाई-भतीजावाद या रिश्वत का बोलबाला


स्वतंत्रता या गणतंत्र दिवस जैसे आजादी के पर्व के मौकों पर देश के प्रतिभावान लोगों (खेल, साहित्य, फिल्म, कला व अन्य क्षेत्र से जुड़े) को जिन्होंने कि अपने क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दिया है, को सम्मान स्वरूप पदमश्री, पद्म विभूषण जैसी उपाधियां राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री के हाथों दी जाती है। अभी तक ये सम्मान बेहद ईमानदारी से सरकार की ओर से दिए जा रहे थे, लेकिन आज जिस तरीके से राजनीति में भ्रष्टाचार, परिवारवाद, भाई-भतीजावाद की परंपरा बढ़ गई है, उससे आज ये पुरस्कार भी अछूते नहीं रह गए हैं। कहा जाता है कि आटे में नमक तो चलता है। ऐसा तो पहले भी होता होगा, लेकिन एक दशक से इस प्रक्रिया पर अंगुली उठना, भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद का आरोप आदि किसी एक क्षेत्र की प्रतिभा नहीं, बल्कि अलग-अलग क्षेत्रों की प्रतिभाओं द्वारा उंगलियां उठाई जाती रही हैं। इसमें दिन-प्रतिदिन अमरबेल की तरह वृद्धि हो रही है। वहीं, इनसे कमतर श्रेणी के पुरस्कारों में अक्सर राजनीतिक हस्तक्षेप, लालच, समाज में चल रहे भाई-भतीजावाद और पैसे का बोलबाला आम रहा है। कई उपाधियां तो पैसे से दी जाती रही हैं, जो कि गुणवत्ता की किसी कसौटी पर खरी नहीं उतरतीं।
हाल में ही सरकार ने पुरस्कार दिए जाने की चयन प्रक्रिया में बड़ा बदलाव किया है। ये बदलाव है कि इसमें जो लोग खुद को पात्र मानते हैं, उन्हें अपनी बायोग्राफी लिखकर देनी होगी, फिर चयन समिति उसे पढ़कर अपना निर्णय देगी।
ऐसे समय में मन में एक सवाल उठता है कि अगर कोई व्यक्ति अपना प्रजेंटेशन, लेखन किसी विशेषज्ञ से लिखवाकर और प्रमाण-पत्र आदि खरीदकर लगा दे तो अयोग्य व्यक्ति भी ऐसा करके खुद को योग्य साबित कर देगा। बड़े ही ताज्जुब की बात है कि इन सबको देश के सर्वोच्च पुरस्कार या उपाधि उस क्षेत्र में उस पात्रता को देने के लिए शुरू हुई प्रक्रिया देखनी चाहिए। जिस व्यक्ति ने उस क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण योगदान देकर देश का नाम बढ़ाने के साथ ही उस क्षेत्र का कद बढ़ाया है।
बड़ी ही हंसी आती है कि जब हम उभरते हुए फिल्मी कलाकारों को तो हम ये सम्मान देते हैं, जबकि वो खाली एक नाट्य रुपातंरण है। ये ऐसे कलाकार हैं, जिन्होंने कि किसी भी कला के क्षेत्र में अपना उल्लेखनीय योगदान नहीं दिया है। वो तो मात्र कहानी और झूठ का प्रजेंटेशन और अपने राजनीतिक रिलेशन के सहारे पात्र बन जाते हैं।
मेरा तो ये मानना है कि उच्च या श्रेष्ठ सम्मान तभी तक श्रेष्ठ रहता है, जब तक कि वो श्रेष्ठता के हर नियम और कायदे कानून का पालन करता है। अगर इस तरीके के बिना श्रेष्ठता के नियम और कानून को ध्यान में रखकर अगर हम इन सम्मानों में आरोपों व प्रत्यारोपों के दलदल में फंसेगे या उंगली उठाएंगे तो इनकी श्रेष्ठता कम हो जाएगी। मुझे तो डर है कि कहीं इस तरीके से दिन-प्रतिदिन राज्य से लेकर केंद्र सरकार तक भाई-भतीजेवाद और राजनीतिक आरोप लग रहे हैं। इनसे बचने के लिए फीस तय कर देनी चाहिए।
कहते हैं कि अगर कहीं घूसखोरी का चलन आम है तो इसे लीगल कर देना चाहिए। इसी तरीके से इन सम्मानों के लिए भी सरकार को फीस लगाकर 'जैसा सम्मान, उतनी फीस' वसूलकर खुद को इन आरोपों से अलग रखना चाहिए। जिस तरीके से आज देश में सैकड़ों सम्मान बिना किसी पात्रता के पैसे के बल पर प्राप्त किए जा रहे हैं। इन तरीकों के सम्मान की श्रेष्ठता बनाए रखने के लिए और प्रतिभाओं के आत्मसम्मान की आत्महत्या से रोकने के लिए सरकार को इस विषय पर गंभीरता से मंथन करना होगा अन्यथा प्रतिभाओं का इस तरीके से अत्याचार उन प्रतिभाओं को देश व राज्य से पलायन करने से कोई नहीं रोक पाएगा और उभरती हुई वे प्रतिभाएं जिन्हें कि सम्मान मिलता है, वे दूसरों के लिए मोटिवेशन और आईकॉन का काम करती हैं। अत: इस पर जनता को भी आवाज उठाकर इस तरीके के सम्मानों की श्रेष्ठता को बचाने का काम करना चाहिए।

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